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और उनके (अहले किताब) के दरमियान जो कुछ अल्लाह ने नाज़िल किया है उसके अनुसार फ़ैसला करो। और उनकी इच्छाओं को न अपनाओ, और इस बात से होशियार रहो कि वह तुम्हे उन चीज़ो से फेर न दें जो अल्लाह ने तुम पर नाज़िल की है। अगर उन्होने तुम्हारे आदेश और फ़ैसले से मुह फ़ेर लिया तो समझ लो कि अल्लाह चाहता है कि उनके कुछ पापों के कारण उन्हे सज़ा दे, और निसंदेह बहुत से लोग अल्लाह के विरोधी है।
इस आयत के नाज़िल होने के बारे में कहते हैं कि यहूद के कुछ विध्दवानों ने पैग़म्बर (स) से कहा कि अगर आप हमारे और दूसरों के झगड़ों में हमारे हक़ में फ़ैसला करें तो हम ईमान ले आयेंगें, और हमारे साथ सारे यहूदी इस्लाम ले आयेंगें, उस समय यह आयत नाज़िल हुई।
तफ़सीरे क़ुरतुबी के लेखक कहते है: इस आयत में फ़ितना (يَفْتِنُوكَ) से मुराद अल्लाह की राह को बंद करना है।
1- जीवन की महत्वपूर्ण बातों का दोहराया जाना ज़रूरी है। जैसे (सिर्फ़ अल्लाह के आदेश से फ़ैसला करो, लोगों की हवस के पीछे न रहो) इस आयत में और इससे पहले वाली आयत में आया है।
2- आयत के नाज़िल होने की जो वजह है इससे मालूम होता है कि लक्ष्य साधन की व्याख़्या नही कर सकता। (अत: किसी के मुसलमान होने के कारण अन्याय से सहायता नही ली जा सकती)
मतलब हासिल करने के लिये किसी चीज़ की आड़ नही लेनी चाहिये। जैसे: किसी गिरोह के मुसलमान होने के लिये ग़लत फ़ैसले से मदद नही लेना चाहिये।
3- अल्लाह का डराना कारण बनता है कि नबी ग़लतियों से बचे रहें। (وَاحْذَرْهُمْ)
4- जब अल्लाह के रसूल (दूत) को काफ़िरों की मक्कारियों से डर है तो आम लोगों को तो और भी होशियार रहने की ज़रूरत है।
5- दुश्मनों से होशियार रहें कही वह आप के समाज में न घुस जाये। (وَاحْذَرْهُمْ أَن يَفْتِنُوكَ)
6- यह सारी कठोर बातें (وَلاَ تَتَّبِعْ, وَاحْذَرْهُمْ, يَفْتِنُوكَ.....) पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सच्चे होने की दलील है कि यह आयतें अल्लाह की तरफ़ से है पैग़म्बर की तरफ़ से नही, क्योकि ज़ाहिर है कि कोई ख़ुद को इतनी कठोर बातें नही कहता।
7- पाप करना अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली सज़ा का कारण बनता है। (أَن يُصِيبَهُم بِبَعْضِ ذُنُوبِهِمْ)
8- दुश्मन भी अल्लाह के बहुत से आदेश को पसंद करते है। फेर बदल का ख़तरा उन बातों में होता है जिन्हे वह पसंद नही करते। (عَن بَعْضِ مَا أَنزَلَ اللّهُ)
9- दुश्मन के धर्म से फिरने की वजह उनका फ़िस्क़ है। वर्ना ऐ पैग़म्बर(स) तुम में या तुम्हारे धर्म में कोई कमी नही है। (فَإِن تَوَلَّوْاْ فَاعْلَمْ....)
10- इस बात की उम्मीद भी नही रखना चाहिये कि सारे लोग सीधे मार्ग पर आ जायेगे। (كَثِيرًا مِّنَ النَّاسِ لَفَاسِقُونَ)
أَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ وَمَنْ أَحْسَنُ مِنَ اللّهِ حُكْمًا لِّقَوْمٍ يُوقِنُونَ 50
क्या वह जाहिलियत के ज़माने वाला आदेश चाहते है? अल्लाह पर भरोसा और ईमान रखने वालों के लिये अल्लाह से श्रेष्ठ किसका फ़ैसला हो सकता है।
बेहतरीन क़ानून वह हैं जिनका बनाने वाला यह बातें जानता हो:
1- मनुष्य और दुनिया के सारे अगले पिछले भेदों को जानता हो।
2- अपने आप को फ़ायदा पहुचाने का मतलब न रखता हो।
3- उसके काम में भूले से या जानबूझ कर कोई ग़लती न होती हो।
4- किसी भी ताक़त से नही डरता हो।
5- सबका भला चाहता हो।
यह सब शर्ते सिर्फ़ अल्लाह में पायी जाती है। फिर उससे श्रेष्ठ किसका आदेश हो सकता है?
1- जो लोग अल्लाह के क़ानून के होते हुए इंसानी क़ानून की तरफ जाते है वह जाहिलियत के ज़माने की तरफ़ जाना चाहते है।
2- इंसान का जो भी क़ानून अल्लाह के क़ानून के ख़िलाफ़ हो वह जाहिलीयत का आदेश है। (क्योकि इस क़ानून की बुनियाद हवस, डर, लालच, जिहालत, ग़लती और ख़्यालों पर रखी गयी है।)
3- जाहिलीयत का ज़माना किसी एक दौर तक नही है। बल्कि जब भी लोग अल्लाह से अलग हो जायें वह जाहिलीयत का दौर है।
4- अपनी आत्मा से सवाल करना चाहिये। (وَمَنْ أَحْسَنُ مِنَ اللّهِ حُكْمًا)
5- जो लोग अल्लाह पर भरोसा रखते है वह उसके अलावा किसी और के पीछे नही जाते। लेकिन जो लोग इंसानी क़ानून को पसंद करते है उन्हे अपने ईमान में शक करना चाहिये। (لِّقَوْمٍ يُوقِنُونَ)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَتَّخِذُواْ الْيَهُودَ وَالنَّصَارَى أَوْلِيَاء بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمْ فَإِنَّهُ مِنْهُمْ إِنَّ اللّهَ لاَ يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ 51
ऐ ईमान वालों, यहूदियों और ईसाईयों पर (भरोसा न करो) और उन्हे अपना दोस्त न बनाओ, क्योकि वह सिर्फ़ एक दूसरे के दोस्त है। और तुम में जो भी उन्हे अपना दोस्त बनाएगा वह उनमें से ही है। निसंदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वाली वंश की सीधा रास्ता नही दिखाता।
1- विदेशी राजनीतियों में मुसलमानों पर काफ़िरों को श्रेष्ठता नही होनी चाहिये। [40](لاَ تَتَّخِذُواْ) चाहे वह जिस तरह की भी बड़ाई हो, और चाहे वह ज़्यादा माहिर और तजर्बे वाले और दुनिया देखें हुए हों।
2- दुश्मन से नफ़रत ईमान की शर्त है। (يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَتَّخِذُواْ...)
3- जो इस्लामी हुकूमतें काफ़िर हुकूमतों को अपना मालिक समझती है।वह भी उन ही की तरह है। (فَإِنَّهُ مِنْهُمْ) किसी इंसान या गिरोह की दोस्ती उसे अपना बना लेती है।
4- काफ़िर तुम्हारे ख़िलाफ़ इकठ्ठे हो जायेगें। (بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ)
5- काफ़िरों की हुकूमत को नही मानना चाहिये। क्योकि वह सिर्फ़ अपनी फ़िक्र करते है। [41](بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ)
6- न ही काफ़िरों को अपना मालिक बनाना चाहिये और न ही उनको जो उनकी हुकूमत को मानते है। (فَإِنَّهُ مِنْهُمْ)
7- काफ़िरों को मालिक मानने का मतलब है कि हमने अपने असली मालिक अल्लाह से बंधन तोड़ लिया है। (لاَ يَهْدِي الْقَوْمَ الفاسقِينَ)
8- काफ़िरों पर भरोसा करना इस्लामी हुकूमत और समाज पर ज़ुल्म करना है। (لاَ يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ)
[1]- क़ुरआन, बुतों (मुर्तियों) को पूजने वालो से किये गये वादों पर भी वफ़ा को ज़रुरी समझता है। (و اتموا الیھم العھد)।
यहाँ तक कि फाजिरों (दीन से निकल जाने वाले) के वादे पर अमल को भी अनिवार्य समझता है। इमाम सादिक़ (अ) की इस हदीस जो (उसूले काफ़ी जिल्द 2 पेज 162) मे है, से पता चलता है।
इसी तरह अगर कोई समझौता मुसलमान के कहने पर किसी दुश्मन से किया जाये तो उसको भी वफा करना उस का कर्तव्य है।, जैसे कोई काफ़िर किसी मुसलमान के कहने पर कि वहा अमन है किसी इलाक़े मे चला जाए। (मुसतदरकुल वसाएल जिल्द 2 पेज 250)
[2] - सूरह निसा आयत 160, सूरह अन्आम आयत 146
[3]- बेहारूल अनवार जिल्द 16 पेज 144
[4] - मुसलमान 80 फरसख़ (एक फरसख साढ़े चार किलो मीटर का होता है) का सफर करके मदीने से मक्के हज करने आये लेकिन काफ़ीरो ने हज नही करने दिया और होदैबीया की सुलह हुई। तो अब मक्का जीतने के बाद इन्तेक़ाम का हक़ नही है।
[5] - जैसे अगर ईल्म हासिल करना नेकी है तो उसके रास्ते : स्कूल, किताबख़ाना, लेबोरेटरी, किताब, आने जाने के लिये गाड़ी, उस्ताद की तरबीयत (टेर्निग), उस्ताद (शिक्षक) और शागिर्द (छात्र) को शौक़ दिलाना... सब नेकी की राह मे मदद करना है।
[6] - जैसे शराब बनाने वाले को अंगूर ना बेचे, बदमाश तक हथियार न पहुचने दिया जाए, कमीने लोगों को राज़ ना बताया जाए, गुनाह करने वाले पर हँसा ना जाए।
[7] -नुक्ता: सूरए बक़रा की 177 वी आयत में (बिर्र) नेकी के जगह बयान हुई है: (وَلَـكِنَّ الْبِرَّ مَنْ آمَنَ بِاللّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَالْمَلآئِكَةِ وَالْكِتَابِ وَالنَّبِيِّينَ وَآتَى الْمَالَ عَلَى حُبِّهِ ذَوِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ وَالسَّآئِلِينَ وَفِي الرِّقَابِ وَأَقَامَ الصَّلاةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَالْمُوفُونَ بِعَهْدِهِمْ إِذَا عَاهَدُواْ وَالصَّابِرِينَ فِي الْبَأْسَاء والضَّرَّاء وَحِينَ الْبَأْسِ أُولَـئِكَ الَّذِينَ صَدَقُوا وَأُولَـئِكَ هُمُ الْمُتَّقُونَ) बिर्र (नेकी) अल्लाह, क़यामत, फरिश्तो, आसमानी किताब, नबीयों पर ईमान और समाज के कुचले हुए लोगो की मदद करना, समझौतों पर पाबन्द रहना, कामों में सब्र करना नेकी पर मदद करना है।
बहुत सी हदीसों में नेकी पर मदद करना और मज़लूमों व ग़रीबों की मदद करने की सिफ़रिश की गयी है और ज़ालीमों की मदद करने से मना किया गया है। हम यहाँ कुछ हदीसों को नमूने के तौर पर ला रहे है।:
किसी मुसलमान की मदद करना, एक महीने के सुन्नती रोज़ो और ऐतेकाफ़ (अल्लाह की एबादत के लिये मस्जिद मे रहने से बेहतर है। (वसाएल अल शिया जिल्द 11 पेज 34)
इमाम सादिक़ (अ) कहते है: जो कोई किसी को मदद पहुचाने के लिये क़दम बढ़ाता है उस का पुन्य (सवाब) श्रत्रिय (जंग में जाने वाले सिपाही) की तरह है। (वसाएल जिल्द 8 पेज 60)
दूसरी हदीस मे इस तरह कहा गया है: जब तक इन्सान दूसरों को मदद करने की फिक्र मे रहता है अल्लाह उस की मदद करता है। (वसाएल जिल्द 8 पेज 58)
ज़ालीम की मदद करने वाला ख़ुद भी ज़ालीम है। (वसाएल जिल्द 11 पेज 34)
हदीसों में ये कहा गया है कि मस्जिद बनाने में भी ज़ालीम से मदद न ली जाए। (वसाएल जिल्द 12 पेज 130)
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