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وَكَتَبْنَا عَلَيْهِمْ فِيهَا أَنَّ النَّفْسَ بِالنَّفْسِ وَالْعَيْنَ بِالْعَيْنِ وَالأَنفَ بِالأَنفِ وَالأُذُنَ بِالأُذُنِ وَالسِّنَّ بِالسِّنِّ وَالْجُرُوحَ قِصَاصٌ فَمَن تَصَدَّقَ بِهِ فَهُوَ كَفَّارَةٌ لَّهُ وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ 45

अनुवाद:

और हमने तौरैत में उनके (यहूदियों) लिये लिखा कि: क़िसास (बदले में) जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत है। और ज़ख़्मों पर भी बदला दिया जायेगा। और जो क्षमा कर देगा और बदला नही लेगा तो यह बदला न लेना उसके पापों का प्रायश्चित हो जायेगा। और जो भी अल्लाह के भेजे हुए आदेश के अनुसार आदेश नही करेगा निसंदेह वह अत्याचारी है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

बदन, आँख, कान, दाँत या किसी भी हिस्से को नुक़सान पहुचाने पर क़िसास (बदला) है। और हर चीज़ के बदले वही चीज़ है। आयत में बदन के इन हिस्सों के नाम नमूने के तौर पर आये है। नही तो हर हिस्से पर बदला रखा गया है। (तफ़सीरे अतयबुल बयान)

आयत के संदेश:

1- सारे के सारे इंसान चाहे वह जिस भी वंश और क़बीले के हों, ग़रीब हों या अमीर हों, सबके लिये क़ानून बराबर है।और किसी का ख़ून किसी से ज़्यादा लाल नही है।[35]

2- क़िसास (बदला) इस्लाम से पहले के धर्मों में भी था।[36] इस्लाम और दूसरे धर्मों में अदालत में फ़ैसले के क़ानून लगभग मिलते जुलते है।

3- सदक़ा (अल्लाह की राह में कुछ देना) सिर्फ़ पैसा देना नही है। मुजरिम को बख़्शना और क्षमा करना भी एक तरह का दान है। (فَمَن تَصَدَّقَ)

4- तुम्हारे क्षमा कर देने से अल्लाह भी उसे माँफ़ कर देता है। (فَهُوَ كَفَّارَةٌ لَّهُ) शायद मतलब यह हो कि आप के माँफ़ कर देना मुजरिम के पापों का प्रायष्चित हो जाये। और वह क़यामत में सज़ा से बच जाये। (तफ़सीरे अलमीज़ान)

5- आयत में दंड की बातों के साथ साथ अख़लाक़ की बातों का भी वर्णन हुआ है। (बदला लेना के साथ साथ क्षमा कर देना भी है)

6- तौरेत में दीयत (बदले के तौर पर पैसा देना) का वर्णन नही हुआ है। उसमें सिर्फ़ जान लेने या माँफ़ कर देने का वर्णन हुआ है। लेकिन इस्लाम में दीयत का वर्णन तीसरे रास्ते के तौर पर हुआ है। (तफ़सीरे क़ुरतुबी)

7- सिर्फ़ जुर्माना और सज़ा के ज़रीये जुर्म से नही रोका जा सकता है।

8- अगर अल्लाह का आदेश जारी नही होगा हो तो इंसानीयत ज़ुल्म का शिकार हो जायेगी। (وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ)

9- आँख और कान सिर्फ़ नमूने के तौर पर बयान हुए है। वर्ना बदन के हर हिस्से के लिये क़िसास (बदला) है। (तफ़सीरे अतयबुल बयान)

وَقَفَّيْنَا عَلَى آثَارِهِم بِعَيسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَآتَيْنَاهُ الإِنجِيلَ فِيهِ هُدًى وَنُورٌ وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَهُدًى وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ 46

अनुवाद:

और हमने (पहले वाले) नबियों के बाद ईसा इब्ने मरियम को भेजा जबकि उनके पास मूल तौरेत थी, और हमने उन्हे इंजील के साथ भेजा जिस में लोगों के लिये मार्गदर्शन और नूर था। (ख़ुद हज़रते ईसा की तरह) जिन्होने तौरेत की पुष्टी की थी, जो परहेज़गारों के लिये निदेश और सीख है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

क़ुरआन भी मोमिनों का मार्गदर्शन करता है (सूरह बक़र: आयत-1 ) और इंजील भी, मुम्किन है आयत का मतलब यह हो कि हमने बनी ईसराईल के नबियों के बाद हज़रते ईसा को भेजा जो अपनी उन विशेषताओं से मिलते जुलते थे जो उनके लिये तौरेत में बयान हुई थी। इसलिये ईसा और उनकी निशानियाँ एक दूसरे के सही होने का बखान कर रही थी।

आयत के संदेश:

1- नबी और उनकी किताबें सब एक जगह से और एक मक़सद के लिये आयी है। और दोनों एक दूसरे की पुष्टी करते हैं। [37](مُصَدِّقًا)

2- तौरेत, इंजील और क़ुरआन सब नूर है।[38]

3- लोगों के सही धर्म का आदर करना चाहिये। [39](وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ)

4- नबी और आसमानी किताबें सारे लोगों के लिये मार्गदर्शन है। परन्तु केवल पवित्रात्मा वाले ही इस नूर से मार्गदर्शन पा सकते है।

وَلْيَحْكُمْ أَهْلُ الإِنجِيلِ بِمَا أَنزَلَ اللّهُ فِيهِ وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ 47

अनुवाद:

इंजील के मानने वालों को चाहिये कि वह अल्लाह के आदेश पर जो उसने इंजील में बयान किया है, अमल करें। और जो लोग अल्लाह के बयान किये हुए आदेश पर अमल नही करते है वह फ़ासिक़ (धर्म से बाहर) है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

यह आयत हज़रते ईसा के धर्म के बारे में है जो हज़रते पैग़म्बरे इस्लाम स) से पहले आये है। वर्ना इस्लाम आने के बाद सारे धर्मों के लिये ज़रूरी है कि वह इस्लाम के क़ानून पर अमल करें।

और उन लोगों के बारे में जो अल्लाह के क़ानून के अनुसार आदेश नही करते है। उन के लिये एक के बाद एक कई आयतों में (ज़ालिम), (फ़ासिक़), (काफ़िर) जैसे शब्द प्रयोग हुए है। इससे इस बात के महत्व का अंदाज़ा होता है। ऐसे लोग अल्लाह के क़ानून पर अमल नही करने की वजह से काफ़िर है, अपनी ज़िम्मेदारियों के हद से बाहर निकल जाने की वजह से फ़ासिक़ है। और मुलज़िमों पर ज़ुल्म करने की वजह से ज़ालिम हैं।

44     वी और 45वी आयत, जिसमें यहूदियों से संबोधित किया गया है उनको, ज़ालिम व काफ़िर क़रार देती है। चुँकि वह अल्लाह के क़ानून में कमी व बेशी करते है और धर्म को कुछ पैसों में बेच देते है, अल्लाह के बजाए लोगों से डरते है। (اولئك هم الكافرون ) और लोगों पर ज़ुल्म करते है। (اولئك هم الظالمون)

इस (47वी) आयत में ईसाईयों के इंजील से आदेश न करने का वर्णन हुआ है। (न की क़िसास में ख़ामोशी, और कुछ पैसों में धर्म को बेचने की वजह) और इसलिये उन्हे फ़ासिक़ कहा गया है चुँकि हक़ के दायरे से बाहर निकल गये है।

وَأَنزَلْنَا إِلَيْكَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتَابِ وَمُهَيْمِنًا عَلَيْهِ فَاحْكُم بَيْنَهُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ وَلاَ تَتَّبِعْ أَهْوَاءهُمْ عَمَّا جَاءكَ مِنَ الْحَقِّ لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنكُمْ شِرْعَةً وَمِنْهَاجًا وَلَوْ شَاء اللّهُ لَجَعَلَكُمْ أُمَّةً وَاحِدَةً وَلَـكِن لِّيَبْلُوَكُمْ فِي مَآ آتَاكُم فَاسْتَبِقُوا الخَيْرَاتِ إِلَى الله مَرْجِعُكُمْ جَمِيعًا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ فِيهِ تَخْتَلِفُونَ 48

अनुवाद:

और हमने अपनी किताब (क़ुरआन) को हक़ के साथ तुम पर नाज़िल किया। जबकि क़ुरआन अपने से पहले वाली किताबों की पुष्टी करता है। और उनकी सुरक्षा व देखभाल करता है। अर्थात जो कुछ अल्लाह ने नाज़िल किया है उनके दरमियान उससे आदेश करो। और उनका हक़ से दूर होने में साथ मत दो। हमने तुम सब को एक रौशन रास्ता दिखा दिया है।और अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक वंश में पैदा करता(और तुम सब के लिये एक धर्म और क़ानून होता) लेकिन अल्लाह तुम्हे अपनी नेमतों के ज़रीये आज़माना चाहता है। लिहाज़ा अच्छे कामों में जल्दी करो, इसलिये कि तुम सब को अल्लाह की तरफ़ लौट कर जाना है।उस वक़्त वह तुम्हे उन चीज़ों की ख़बर देगा जिसके बारे में तुम झगड़ा करते थे।

आयत की सूक्ष्मताएं:

(شِرْعَةً) पानी की तरफ़ जाने वाले रास्ते को और (مِنْهَاجًا) रौशन रास्ते को कहते है।

इब्ने अब्बास कहते है: शिरआ, उन अहकाम को कहते है जो क़ुरआन में आये है। और मिनहाज वह है जो पैग़म्बर (स) की सुन्नत में आया है। (मुफ़रेदाते राग़िब)

आयत के संदेश:

1- क़ुरआन आसमानी किताबों के सिध्दातों की सुरक्षा और उन्हे पूरा करने वाला है। (مُهَيْمِنًا) क़ुरआन उसी तरह सारी आसमानी किताबों के लिये श्रेष्ठ है जैसे युनिवर्सिटी की किताबें स्कूल की किताबों पर श्रेष्ठता रखती है।

2- अहले किताब (ईसाई, यहूदी) के दरमियान क़ुरआन से आदेश किया जा सकता है। (فَاحْكُم بَيْنَهُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ)

3- धर्मगुरुओं को जिन ख़तरों से डरना चाहिये वह लोगों की मनमानी करना और हक़ को न मानना है। (وَلاَ تَتَّبِعْ أَهْوَاءهُمْ)

4- तौरेत और इंजील के आसमानी किताब होने की पुष्टी हो जाने का यह अर्थ नही है कि वह हमेशा बाक़ी रहेंगीं।

5- धर्म एक है परन्तु धर्म मार्ग बहुत से है। जैसे दरिया एक होता है मगर उसके रास्ते बेशुमार होते हैं।

6- धर्मों का अलग अलग होना परीक्षा के लिये है। ताकि मालूम हो सके कि कौन ईमान लाने वाला है और कौन कुफ़्र करने वाला है।

7- ग़लत कामों के बजाए अच्छे कामों में जल्दी करना चाहिये। (فَاسْتَبِقُوا)

8- मुक़ाबले का मक़सद नेक और अच्छे काम होना चाहिये। (فَاسْتَبِقُوا الخَيْرَاتِ)

9- क़यामत में बेईज़्ज़त होने से पहले अपने झगड़ों को सुलझा लेना चाहिये। (فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ فِيهِ تَخْتَلِفُونَ)

10- नेक काम जल्दी करें। कहीं ऐसा न हो कि मौक़ा हाथ से निकल जाये।

11- क़यामत पर ईमान रखना झगड़ों के समाधान का कारण बन सकता है। (فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ فِيهِ تَخْتَلِفُونَ)

وَأَنِ احْكُم بَيْنَهُم بِمَآ أَنزَلَ اللّهُ وَلاَ تَتَّبِعْ أَهْوَاءهُمْ وَاحْذَرْهُمْ أَن يَفْتِنُوكَ عَن بَعْضِ مَا أَنزَلَ اللّهُ إِلَيْكَ فَإِن تَوَلَّوْاْ فَاعْلَمْ أَنَّمَا يُرِيدُ اللّهُ أَن يُصِيبَهُم بِبَعْضِ ذُنُوبِهِمْ وَإِنَّ كَثِيرًا مِّنَ النَّاسِ لَفَاسِقُونَ 49

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