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ऐ ईमान वालो, खुदा की निशानियों की पाकीज़गी को बर्बाद न करो और इसी तरह उन पवित्र महीनों में जिन में जंग जाएज़ (हलाल) नही है, क़ुर्बानी के जानवर और वह जानवर जिन के गले में पट्टे बाँध दिये गये हैं, वह लोग जो अल्लाह के घर की तरफ जाने का विचार रखते है और उस के फज़्ल व करम को पाना चाहते हैं उन का आदर करो। और जब ऐहराम (हज का लिबास) उतार दिया जाए (उमरे की इबादत पूरी हो जाए) तो शिकार तुम्हारे लिए जाएज़ है। और किसी गिरोह से दुश्मनी इस बात पर की उन्होने तुम्हे (अपने ज़माने में) मक्के में दाख़िल होने से रोक दिया था, तुम्हे ज़ुल्म पर न उभारे। नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद करो लेकिन गुनाह और ज़ुल्म में एक दूसरे की मदद न करो और अल्लाह से डरो कि निसंदेह उसकी सज़ा (मुजरिमों के लिये) सख़्त है।
“الْهَدْيَ” क़ुर्बानी के उस जानवर को कहते है। जिस के गले में कोई निशानी न हो और “الْقَلآئِد” निशानी वाले जानवर को कहते है।
1- अल्लाह की निशानियों की पवित्रता और सभ्यता का ख़्याल रखो। (لاَ تُحِلُّواْ شَعَآئِرَ اللّهِ)
2- सारे महीने बराबर नही है, बल्कि कुछ महीने अल्लाह से ख़ास है जो ख़ास महत्व रखते है। (وَلاَ الشَّهْرَ الْحَرَامَ)
3- जानवर भी अगर अल्लाह की राह में आ जाए तो वह भी आदर्निय हो जाता है। (وَلاَ الْهَدْيَ وَلاَ الْقَلآئِدَ)
4- अल्लाह के घर के दर्शन को जाने वालो का आदर करना चाहिए। (وَلا آمِّينَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ)
5- हज, दुनिया और स्वर्ग हासिल करने का रास्ता है। (يَبْتَغُونَ فَضْلاً مِّن رَّبِّهِمْ وَرِضْوَانًا)
6- हज में, उस का असली लक्ष्य (मक़सद) काबे से मिलना है और दूसरे काम बाद में है। (آمِّينَ الْبَيْتَ)
7- मक्के में हर तरह के माली, व्यापारी, एक्सपोर्ट, इम्पोट के मामले इस्लामी देशों के लिये आज़ाद हैं।
8- दूसरों की एक वक़्त की दुश्मनियों का बदला दूसरे वक़्तों में लेना ज़ुल्म के ज़ाएज़ होने का कारण नही बन सकता।[4] (وَلاَ يَجْرِمَنَّكُمْ)
9- अल्लाह के घर की पवित्रता और पाकीज़गी की सुरक्षा (हिफाज़त) के लिये एक दूसरे की मदद की ज़रूरत है। (لاَ تُحِلُّواْ شَعَآئِرَ اللّهِ)
10- दूसरो की ग़ल्तियों पर आँखे चुरा लेना, नेकी के रास्ते की तरफ़ लाने और मदद करने का एक रास्ता है। (وَلاَ يَجْرِمَنَّكُم)
11- इस्लामी हुकूमत और समाज को अंतराष्टीय और ज़ालिम व मज़लूम के सिलसिले में, सही और ग़लत घटनाओं के मुक़ाबले में ज़ोरदार अपील करनी चाहिये और तरफ़दारी के मौक़े पर तरफ़दारी और तरफ़दारी के मौक़ा न हो तो तरफ़दारी नही करनी चाहिये। (وَتَعَاوَنُواْ عَلَى الْبرِّ وَالتَّقْوَى.....)
12- अच्छाईयों को बढ़ाने के लिये हर तरह से रास्तो को तैयार करना चाहिये और इस मक़सद के लिये एक दूसरे की मदद करना चाहिये। [5](وَتَعَاوَنُواْ عَلَى الْبرِّ وَالتَّقْوَى)
13- क़बीले, इलाक़े, नस्ल व ज़बान और मित्र देशों की तरफदारी के बजाये, हक़ की तरफ़दारी करनी चाहिये और नेकी की राह में मदद करनी चाहिये। (وَتَعَاوَنُواْ عَلَى الْبرِّ وَالتَّقْوَى)
14- इस्लामी समाज में नेकी करने वाला अकेला नही है और ज़ुल्म करने वाले का कोई मदद करने वाला नही है। (...وَتَعَاوَنُواْ عَلَى الْبرِّ وَالتَّقْوَى)
15- ज़ुल्म करने वाले और गुनाह करने वाले पर सारे दरवाज़ों को बंद कर देना चाहिये ताकि बुराईयाँ ख़त्म हो जाये। [6](وَلاَ تَعَاوَنُواْ)
16- जो लोग अल्लाह की निशानियों की पवित्रता का ख़्याल नही रखते और बुराईयों को बढ़ावा देते है। उन्हे ख़ुद को अल्लाह की सख़्त सज़ा के लिये तैयार रखना चाहिये।[7] (وَاتَّقُواْ اللّهَ إِنَّ اللّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ)
حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالْدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيرِ وَمَا أُهِلَّ لِغَيْرِ اللّهِ بِهِ وَالْمُنْخَنِقَةُ وَالْمَوْقُوذَةُ وَالْمُتَرَدِّيَةُ وَالنَّطِيحَةُ وَمَا أَكَلَ السَّبُعُ إِلاَّ مَا ذَكَّيْتُمْ وَمَا ذُبِحَ عَلَى النُّصُبِ وَأَن تَسْتَقْسِمُواْ بِالأَزْلاَمِ ذَلِكُمْ فِسْقٌ الْيَوْمَ يَئِسَ الَّذِينَ كَفَرُواْ مِن دِينِكُمْ فَلاَ تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِ الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الإِسْلاَمَ دِينًا فَمَنِ اضْطُرَّ فِي مَخْمَصَةٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّإِثْمٍ فَإِنَّ اللّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ 3
तुम्हारे लिये मुर्दे का गोश्त, ख़ून, सूवर का गोश्त, और वह जानवर जिसे हलाल करते समय अल्लाह का नाम न लिया गया हो, वह हलाल जानवर जिन का खाना जाएज़ है अगर वह दम घुटने, मारने पीटने, गिर जाने, सींग लग जाने की वजह से मर जायें और दरिन्दों के खाये हुए जानवर, यह सब नाज़ाएज़ है, मगर वह जानवर जिसे दरिन्दों के हाथों मरने से पहले तुमने हलाल कर लिया हो। इसी तरह से वह जानवर भी हराम है जो मूर्तियों के पैरों में काटे गये हो या वह गोश्त जो अरब की एक रस्म (अज़लाम) के अनुसार बाटा जाता था।[8] इन सब में अल्लाह की नाफ़रमानी (विरोध) है।
आज काफिर तुम्हारे दीन (धर्म) से मायूस हो गये, अत: तुम उन से न डरो और मुझ से डरो। आज मैने तुम्हारे लिये दीन को सम्पुर्ण कर दिया, और अपनी नेमतों को तुम पर तमाम कर दिया और इस्लाम को तुम्हारे लिये पसन्द कर लिया है।
लेकिन अगर कोई भूख से मर रहा हो और गुनाह का विचार भी न रखता हो तो (हराम चीज़ों को मजबूरी में खा सकता है कोई हर्ज नही है) बेशक अल्लाह माफ (क्षमा) करने वाला और दयालू (मेंहरबान) है।
आयत की सूक्ष्मताएं:
सूरह के शुरु में बयान हुआ था कि चार पैरों वाले जानवर तुम्हारे लिये हलाल हैं, सिवाए उन के जिन के बारे में बाद में आएगा। यहाँ पर सूरह में दस तरह के जानवरों को जिन का गोश्त खाना नाज़ाएज़ है, बयान किया गया है।
(وَالْمُنْخَنِقَةُ) वह जानवर है जिस का दम घुट गया हो, चाहे इंसान के हाथों या किसी जानवर से या ख़ुद से ही।
(الْمَوْقُوذَةُ) वह जानवर है जो मारने और तकलीफ़ पहुचाने से मर जाए। अरबों की परम्परा थी कि कुछ जानवरों को मूर्तियों के आदर में इतना मारते थे कि वह मर जायें और इसे एक तरह की इबादत (पूजा) मानते थे। (तफ़सीरे क़ुरतुबी)
(وَالْمُتَرَدِّيَةُ) वह जानवर जो ऊपर से फेंके जाने की वजह से मर जाए।
(وَالنَّطِيحَة) वह जानवर जिसे सींग लग गयी हो और वह उस से मर जाए।
वह चीज़े जिन का खाना पीना हराम (नाज़ाएज़) है जो इस आयत में बयान हुई है, क़ुरआन में कई बार, जैसे सूरह अनआम, सूरह नहल जो मक्के में नाज़िल हुए है और सूरए बक़रा जो मदीने में उतरा है, आया है लेकिन इस सूरह में मुर्दा जानवरों के बहुत से नमूने जिन का खाना हराम है, बयान हुए है।
हक़ीक़त में दो आयतें इस आयत में बयान हुई है, एक आयत उन गोश्तों के बारे में है जिन का खाना हराम है सिवाए मजबूरी में, जो अस्ल में हराम होने के क़ानून को बता रही है, और उसका ज़ाएज़ होना मजबूरी की वजह से है और दूसरी आयत (....الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ) में अलग बयान हुआ है।
1- (الْيَوْمَ) के बाद पूरा जुमला मिटा देने से आयत के मतलब में कोई नुक़सान नही पहुचता।
2- काफिरों का दीन से मायूस हो जाना और मुर्दा जानवर खाने या ना खाने में कोई रब्त नही है।
3- शियों और सुन्नियों से इस आयत के नाज़िल होने के बारे में जो हदीसें नक़्ल हुई है, वह इन जुमलों को बयान कर रही है (الْيَوْمَ يَئِسَ الَّذِينَ كَفَرُواْ) और (الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ) इनसे पहले और बाद वाली आयत को बयान करना मक़सद नही है।
आयत का यह हिस्सा चुकि महत्वपुर्ण है और विरोधियों की दुश्मनी को भड़काने वाला है इस लिये पैग़म्बर (स) के हुक्म से मुर्दा जानवरो के गोश्त को हराम बयान करने वाली आयत के दरमियान में रख दिया गया है ताकि मुखालिफों के रद्दो बदल से बची रह सके। ठीक उसी तरह जैसे कोई जवाहिरात को सुरक्षा (हिफ़ाज़त) के लिये दूसरी चीज़ों के दरमियान रख देता है ताकि चोरी से बचे रहें।
शियों और सुन्नियों की हदीसों के अनुसार, आयत का यह हिस्सा (الْيَوْم...) ग़दीरे ख़ुम में अली इब्ने अबी तालिब (अ) को ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) बनाने के बाद नाज़िल हुआ है। क़ुरआन और हदीस की दलीलों के अलावा, अक़्ली सोच और विचार से भी यही बात पता चलती है, इस लिये कि उस दिन के लिये (الْيَوْمَ) में चार विशेषतायें बयान हुई है। (1) काफिरों का मायूस हो जाना। (2) दीन का कामिल हो जाना। (3) अल्लाह की नेमतों का लोगों पर तमाम हो जाना। (4) उस दिन इस्लाम का लोगों के लिये दीन होने और एक सम्पुर्ण दीन होने की वजह से अल्लाह का मनपसन्द हो जाना।
अगर इस्लामी इतिहास के सारो दिनों पर ग़ौर करें तो एक भी महत्वपुर्ण दिन जैसे: बेसत (पैग़म्बर (स) जिस दिन नबी बने) का दिन, हिजरत (जिस दिन नबी (स) मक्के से मदीने गये) का दिन, हज़रते फ़ातेमा का जन्मदिन, जिन दिनों जंगें जीतीं, आख़री हज का दिन, सब महत्वपुर्ण होने के बावजूद, इन चार बातों को जो इस आयत में बयान हुई हैं, किसी दिन में नही पायी जातीं। यहाँ तक कि आख़री हज भी नही, इस लिये कि हज दीन का एक टुकड़ा है अत: जो दिन इन गुणों को रखता है वह सिर्फ़ ग़दीरे ख़ुम और अली (अ) के ख़लीफ़ा (नायब) बनने का दिन है। और यह बात पैग़म्बर (स) के बाद मार्ग दर्शक के महत्व को बता रही है।
1-मज़हब की नींव सही मार्ग दर्शक पर है जिसकी वजह से काफिर मायूस हो गये। अगर मार्ग दर्शक अच्छा न हो तो उनका कुछ नही बिगड़ सकता।
2-अगर ग़दीर वाला मार्गदर्शक (रहबर) समाज में हो, तो मुसलमानो को किसी बात का डर नही होना चाहिये। (فَلاَ تَخْشَوْهُمْ وَ)
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