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8- हमें अल्लाह के आदेश के सामने अपना सर झुका देना चाहिये दीन के अहकाम को अपने मन के अनुसार नही मानना चाहिये। [31](فَخُذُوهُ ....فَاحْذَرُواْ)

9- गुनाह इंसान से उसकी मार्गदर्शन की योग्यता छीन लेते है। (يُرِدِ اللّهُ فِتْنَتَهُ)

10- पैग़म्बर (स) भी हटधर्म और ज़िद्दी लोगो के कुछ नही कर सकते। (فَلَن تَمْلِكَ)

11- ज़िद्दी और पत्थर दिल इंसान को अल्लाह की रहमत पाने का कोई अधिकार नही है।

12- दुश्मन, कुफ़्र और मुनाफ़िक़त (बहुमुखी) में जल्दी करते है। तो मुसलमान हक़ की राह में सुस्ती क्यो करते है? (يُسَارِعُونَ فِي الْكُفْرِ)

13- तक़वे और परहेज़गारी से दूर बातों की रिपोर्ट देना खतरनाक कामों में से है। (سَمَّاعُونَ..... لِلْكَذِبِ يُحَرِّفُونَ......)

14- मुनाफ़िक़ों (बहुमुखी) के लिये दुनिया में भी बेईज़्ज़ती है। (जैसे झूठ सुनना, जासूसी, तहरीफ़, अपने मतलब का दीन चाहना) और क़यामत में भी बहुत बड़ी सज़ा उनका इन्तेज़ार कर रही है। (وَلَهُمْ فِي الآخِرَةِ عَذَابٌ)

سَمَّاعُونَ لِلْكَذِبِ أَكَّالُونَ لِلسُّحْتِ فَإِن جَآؤُوكَ فَاحْكُم بَيْنَهُم أَوْ أَعْرِضْ عَنْهُمْ وَإِن تُعْرِضْ عَنْهُمْ فَلَن يَضُرُّوكَ شَيْئًا وَإِنْ حَكَمْتَ فَاحْكُم بَيْنَهُمْ بِالْقِسْطِ إِنَّ اللّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ 42

अनुवाद:

वह बहुत ज़्यादा झूठ सुनने वाले और हराम माल खाने है। अत: अगर उनमें से तुम्हारे पास फ़ैसले के लिये आयें तो चाहो तो उनका मामला निपटा दो या उनसे मुह मोड़ लो, इसलिये कि उनसे मुह मोड़ लेने से तुम्हे कोई नुक़सान नही है। लेकिन अगर उनका मामला अपने हाथ में ले लिया तो उसका फ़ैसला इंसाफ़ के साथ करना। कि निसंदेह अल्लाह इंसाफ़ करने वालों से मुहब्बत करता है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

कुछ शादीशुदा यहूदियों ने औरतों से मुह काला किया। उनके दीन में इसकी सज़ा मौत थी। वह लोग सज़ा से बचने के लिये, इस उम्मीद के साथ पैग़म्बर (स) के पास फ़ैसला कराने आये[32] कि पैग़म्बर (स) उन्हे बचा लेंगें। इस बात से बेख़बर की इस्लाम में भी उसकी सज़ा वही है जो यहूदीयत में है। जब उन्हे पता चला कि इस्लाम का आदेश भी वही है तो फ़ैसला मानने से इन्कार कर दिया।

(सोहत) हदीसों के अनुसार, उस तोहफ़े या रिश्वत को कहते है जो किसी से कोई काम कराने के लिये दिया जाता है। सोहत का मतलब हलाकत या हलाकत में डालने वाली चीज़ है।

आयत के संदेश:

1- यहूदी धर्मगुरु रिश्वत खाया करते थे। (أَكَّالُونَ لِلسُّحْتِ) और उनकी अवाम झूठ सुनने वाली थी (سَمَّاعُونَ لِلْكَذِبِ) सम्माऊना की तकरार शायद इस बात की तरफ़ इशारा हो कि यह काम धीरे धीरे उनकी आदत बन गया।

2- मुसलमानों का अहले किताब (काफ़िरों) से ऐसा मेल जोल था कि लोग पैग़म्बर (स) के पास अपने फ़ैसले कराने आया करते थे।

3- कुछ चीज़ो के बारे में पैग़म्बरो (स) को अल्लाह की तरफ़ से हक़ मिला हुआ थी कि वह उसका फ़ैसला ख़ुद करें। और वहीय के इन्तेज़ार में न रहें। (فَاحْكُم أَوْ أَعْرِضْ)

4- अदालत हमेशा औऱ हर गिरोह के साथ क़ीमती है। (فَاحْكُم بَيْنَهُمْ بِالْقِسْطِ)

5- अगर इस्लामी मार्गदर्शक या इस्लामी हुकुमत को ग़ैरे इस्लामी देशों के दरमियान फ़ैसला कराने को कहा जाये। तो उसे बहादुरी के साफ तौर पर फ़ैसला करना चाहिये। (فَاحْكُم بَيْنَهُمْ)

6- फ़ैसला करते समय, नस्ल, इलाका, गिरोही जलन, अपनी मर्ज़ी और धमकियों की परवाह नही करना चाहिये। (بِالْقِسْطِ)

7- अगर फ़ैसला ना करना बेहतर समझे तो बग़ैर किसी झिझक और डर के फ़ैसला करने से इन्कार कर दे।

وَكَيْفَ يُحَكِّمُونَكَ وَعِندَهُمُ التَّوْرَاةُ فِيهَا حُكْمُ اللّهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوْنَ مِن بَعْدِ ذَلِكَ وَمَا أُوْلَـئِكَ بِالْمُؤْمِنِينَ 43

अनुवाद:

ऐ पैग़म्बर, यहूदी किस तरह आप को अपने फ़ैसलों के लिये बुलाते है। जब कि उनके पास तौरेत मौजूद है और उसमें अल्लाह के आदेश बयान किये गये है। फिर वह तुम्हारे फ़ैसले का विरोध करते है? वह लोग ईमान वाले नही है।

आयत के संदेश:

1- सारी तौरेतों में तहरीफ़ (फेर बदल) नही हुई है। (فِيهَا حُكْمُ اللّهِ)

2- जो कुछ यहूदियों के लिये महत्व रखता है। वह सज़ा में कटौती है। क़ानून पर ईमान रखना नही और अपने फ़र्ज़ का अदा करना। (इसी वजह से वह तौरेत होने के बावजूद सज़ा में कटौती की राह पैदा करने के लिये तुम्हारे पास फ़ैसले के लिये आते है।

3- ऐ काश, अहले किताब (यहूदी और ईसाई) अपनी किताब के आदेश के पाबंद होते। (وَعِندَهُمُ التَّوْرَاةُ)

4- ईमान की निशानी, अल्लाह के क़ानून के सामने सर झुकाना है। (وَمَا أُوْلَـئِكَ بِالْمُؤْمِنِينَ)

إِنَّا أَنزَلْنَا التَّوْرَاةَ فِيهَا هُدًى وَنُورٌ يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّونَ الَّذِينَ أَسْلَمُواْ لِلَّذِينَ هَادُواْ وَالرَّبَّانِيُّونَ وَالأَحْبَارُ بِمَا اسْتُحْفِظُواْ مِن كِتَابِ اللّهِ وَكَانُواْ عَلَيْهِ شُهَدَاء فَلاَ تَخْشَوُاْ النَّاسَ وَاخْشَوْنِ وَلاَ تَشْتَرُواْ بِآيَاتِي ثَمَنًا قَلِيلاً وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ 44

अनुवाद:

हमने तौरेत नाज़िल की जिसमें हिदायत (मार्गदर्शन) और नूर (रौशनी) है। और अल्लाह के पैग़म्बरों (दूतों) को जो उसके आदेश को मानते थे (सब तौरैत नाज़िल होने के बाद) यहूद को उससे आदेश बताते थे और इसी तरह यहूद के बड़े बुध्दिजीवी और विध्दवान इस किताब से(जो उन्हे दी गयी थी और जिस पर वह गवाह थे) फ़ैसले करते थे। इसलिये (ऐ वुध्दवानों) लोगों से न डरो। (अल्लाह के आदेश को बयान करो) और मुझ (मेरे विरोध) से डरो। मेरी आयतों को थोड़े माल के बदले न बेचो। और जो भी अल्लाह के आदेश को नही मानता वह नास्तिक (काफ़िर) है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

(رباني) रब्बान से बना है रब्बान जैसै अतशान, इसके मायनी प्रशिक्षण करने वाले के हैं।

रब्बानी उसे कहते है जो सिर्फ़ अल्लाह वाला हो और किसी दूसरे से उसे मतलब न हो। वह अपने इल्म (ज्ञान) और अमल (कर्म) से अल्लाह वाला हो गया है और लोगो को सुधारने की ज़िम्मेदारी उसे सौंपी गयी है।

(حبر) का अर्थ अच्छे असर रखने के है और चुँकि विध्दवान समाज में अच्छा असर रखते है इसलिये उन्हे हिब्र या अहबार कहा जाता है।[33]

आयत के संदेश:

1- फेर बदल (तहरीफ़) को स्वीकार करते हुए, मूल आसमानी किताबों की प्रशंसा करनी चाहिये।

2- तौरैत हज़रते मूसा (अ) पर नाज़िल होने के बावजूद हज़रते मूसा के बाद सारे नबियों को उस पर अमल करने का आदेश दिया गया था।

3- अगर अल्लाह के नबी उसके आदेश पर सर झुकाते हैं तो हम उसके आदेश पर सर क्यो नही झुकाते है? ( أَسْلَمُواْ) अल्लाह के नबी अपनी तरफ़ से कोई आदेश नही देते थे। बल्कि अल्लाह के आदेश को बताते थे।

4- इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो सबके लिये है। बनी इसराईल के नबियों की भी प्रशंसा (أَسْلَمُواْ) के ज़रीये की गयी है यहूदीयत व ईसाईयत की वजह से नही।

5- हर जाति के विध्दवान अल्लाह के आदेश को लोगों में जारी करने के उत्तरदायी है।और मार्गदर्शक का दुष्टिकोण हर धर्म में पाया जाता है।

6- पद को ध्यान में रखना चाहिये। जैसे नबी (दूत), रब्बानीयून (मार्गदर्शक), अहबार (विध्दवान) और अहले ख़बर (धार्मिक ज्ञान रखने वाले)

7- नबियों (दूतों) को पूरी तौरैत का ज्ञान है। लेकिन विध्दवानों और बुध्दीजीवियों को सिर्फ़ कुछ बातों का (بِمَا اسْتُحْفِظُواْ) ज्ञान दिया गया है।

8- प्रचारक और हुकूमत को धार्मिक बातों का ज्ञान होना चाहिये। और उसे धार्मिक कामों में उतना ही हस्तक्षेप करना चाहिये जितना उसे उसका ज्ञान है। (وَكَانُواْ عَلَيْهِ شُهَدَاء ...........بِمَا اسْتُحْفِظُواْ مِن كِتَابِ اللّه)

9- विध्दवान को आदेश के जारी होने पर पूरी तरह से नज़र रखना चाहिये। और अपने धर्म की सुरक्षा करना चाहिये। (وَكَانُواْ عَلَيْهِ شُهَدَاء)

10- अल्लाह ने विध्दवानों और न्याय कर्ताओं से दो वादा लिया है। (1) अल्लाह के आदेश के लोगों के डर से न बदलें। (2) थोड़े से माल की ख़ातिर वास्तविकता को न छिपायें।

11- जान बूझ कर अन्याय करना कुफ़्र है।[34]

12- न्याय करते समय बेझिझक, बहादुरी और विश्वास ज़रुरी है। और लोगों के डराने धमकाने में नही आना चाहिये। (فَلاَ تَخْشَوُاْ النَّاسَ)

13- जो अल्लाह पर भरोसा करता है। वह दूसरों से उम्मीद नही लगाता। (فَلاَ تَخْشَوُاْ النَّاسَ وَاخْشَوْنِ)

14- अल्लाह के आदेश में फेर बदल, हक़ को छुपाना या अन्याय पर चुप रहना और अल्लाह के अलावा किसी का आदेश मानना, इनके बदले अगर सारी दुनिया मिले तो भी नुक़सान है। इस लिये कि पूरी दुनिया (متاع قليل) थोड़ा सा माल है। (ثَمَنًا قَلِيلاً)

15- आसमानी क़ानून के होते हुए, पूरबी, पच्छिमी हुकूमत और क़ानूनों के पीछे जाना कुफ़्र है। (وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ.....)

16- अल्लाह के आदेश का दिल से इंकार करना, अमल से छोटा दिखाना और जान बूझकर बदलना कुफ़्र है।

17- ज़ालिमों के सामने हक़ को छुपाना, ग़लत पर चुप रहना, अमीरों के सामने अपना धर्म बेचना और लोगों को धोखा देना, ऐसा ख़तरा है जिससे विध्दवानों को बचना चाहिये। (فَلاَ تَخْشَوُاْ النَّاسَ .....وَلاَ تَشْتَرُواْ)

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