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2- इस्लामी सज़ाओं के क़ानून में जिस्मानी यातनाओं के अलावा, आत्मा को चोट पहुचाने वाली सज़ाऐं भी रखी गयी है। ताकि ज्यादा असर करे। (जैसे लोगों के सामने कोड़े मारना, हाथ पैर काटना......)
3- इस्लाम के ताज़ीराती (दण्ड, सज़ा) क़ानून में मुजरिम को डराने धमकाने के साथ साथ लोगों को भी ख़्याल दिलाया गया है कि वह ऐसा काम करने से डरें। (जैसे: लोगों के सामने सज़ा देना।) ताकि जब भी लोग किसी को सज़ा पाते देखें, किसी के हाथ कटते देखें तो उनको होश आ जाये कि चोरी की सज़ा कितनी कड़ी है।
4- अल्लाह के हुक्म के अनुसार सज़ा देने में किसी की मुहब्बत का ख़्याल नही करना चाहिये। (فَاقْطَعُواْ)
5- दुनिया के ताज़ीराती (दण्ड, सज़ा) सिस्टम में, चुँकि सिर्फ़ जेल और ज़मानत है। इसलिये चोरियों पर क़ाबू नही हो सका है। और ज़मानतों (हर्जानों) से भी चोरियों का सिलसिला नही रुक पा रहा है।
6- हाथों का काटना, ख़ुद मुजरिम को एक तरह से हमेंशा के लिये डरा देना है कि वह दोबारा चोरी या किसी भी बुरे काम की हिम्मत न कर सके।
7- चुँकि चोरियाँ हाथों और पैरों से होती है। इसलिये पहली दफ़ा में हाँथ और दूसरी बार में पैर काटा जायेगा ताकि वह दोबारा चोरी न कर सके।
8- अगर चोरी में हाथ काटने की सारी शर्ते न पायी जायें तो उसकी जगह वैसी ही कोई दूसरी सज़ा दी जायेगी।
9- चोरी की सोच या माल व दौलत जमा करने के लिये है या भविष्य सुरक्षित करने के लिये, हाथ काट देने से यह उम्मीद टूट जायेगी। जबकि जेल भेजने या कोड़े मारने से ऐसा नही होगा।
10- चोर को हाथ कटने के अलावा, चोरी का माल भी वापस करना पड़ेगा।
11- इंसानी माल व दौलत और समाजी शाँती इतनी महत्वपुर्ण है कि उसके लिये एक मुसलमान का हाथ तक काटा जा सकता है।
12- इन तमाम अहकाम जारी करने के लिये एक हुकूमत व ताक़त व क़ानून और लोगों की ज़रूरत पड़ती है। इससे मालूम होता है कि इस्लाम हुकूमत और सियासत (राजनिती) वाला धर्म है।
13- ग़रीबी को चोरी का बहाना नही बनाया जा सकता है और न ही उससे चोरी को ज़ाएज़ (हलाल) किया जा सकता है। (इसलिये कि इस्लाम हाथ काटने से पहले हुकूमत के ख़ज़ाने, क़रीबी रिश्तेदारों, क़र्ज़ों और लोगों की मदद (दान) के ज़रीये ग़रीबों को काम और ज़िन्दगी का सामान पहुचाने के महत्व पर ज़ोर देता है।(फ़ी ज़िलालिल क़ुर्आन)
14- अल्लाह की तरफ़ से दी जाने वाली सज़ायें इन्तेक़ाम के तौर पर नही है बल्कि वह बुराईयों से रोकने के लिये है। (نكال (किये की सज़ा) के मायनी में है और सज़ा बुराई से रोकती है।)
15- हदीसों के अनुसार, दाहना हाथ काटा जायेगा ताकि बायाँ हाथ इस्तिन्जा (टायलेट) के लिये बचा रहे। शायद ऐसा सफ़ाई का महत्व बताने के लिये है। (तफ़सीरे साफ़ी व तफ़सीरे मजमऊल बयान)
16- कानून लागू होने के लिये पहले से बना हुआ होना चाहिये। (عَزِيزٌ حَكِيمٌ)
فَمَن تَابَ مِن بَعْدِ ظُلْمِهِ وَأَصْلَحَ فَإِنَّ اللّهَ يَتُوبُ عَلَيْهِ إِنَّ اللّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ 39
हाँ, जो कोई अत्याचार के बाद तौबा कर ले, और अपने बुरे कामों को छोड़ देगा, निसंदेह अल्लाह उसकी तौबा को स्वीकार कर लेगा, निसंदेह वह बहुत क्षमा (माफ़) करने वाला और बड़ा दयालू (मेंहरबान) है।
इस्लाम में, पहले डराया, धमकाया और समझाया गया है फिर सज़ायो को बयान किया गया है। इस से पहले वाली आयत में चोर की सज़ा बताई गयी है। इस आयत में अल्लाह जो क्षमा करने वाला और मेहरबान है इससे तौबा और माफ़ी की और अपने आप को सुधारने की दावत दी जा रही है। जिस की वजह से इंसान पर अल्लाह का लुत्फ़ व करम होता है।
1- बुराईयाँ करने वाले इंसान के लिये हमेशा नेकी के रास्ते खुले हुए है। (فَمَن تَابَ)
2- तौबा सिर्फ़ शर्मिदा हो जाना नही है बल्कि अपने आप में सुधार लाना है। (وَأَصْلَحَ)
3- अगर इंसान तौबा कर ले और अल्लाह की तरफ़ पलट जाये। तो अल्लाह भी उससे अपनी रहमतों का नाता जोड़ लेता है। (يَتُوبُ عَلَيْهِ)
4- अगर चोर (पकड़े जाने और अदालत जाने से पहले) तौबा कर ले। और चोरी का माल लौटा दे। तो वह दुनिया और क़यामत दोनो जगह क्षमा कर दिया जायेगा। लेकिन अगर गिरफ़्तार होने के बाद तौबा करे तो उसे सज़ा मिलकर रहेगी। और उसकी तौबा का असर क़यामत में मालूम होगा।
5- चोरी, ख़ुद अपने ऊपर, समाज पर, अपनी आत्मा पर और समाजिक शाँती पर अत्याचार करना है।
6- मुज़रिमों को जिस ज़बान में भी हो सके। अल्लाह की तरफ़ दावत देना चाहिये और उन्हे उम्मीद बंधानी चाहिये। [30](يَتُوبُ, غَفُور,ٌ رَّحِيمٌ)
أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللّهَ لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ يُعَذِّبُ مَن يَشَاء وَيَغْفِرُ لِمَن يَشَاء وَاللّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ 40
क्या तुम्हे नही मालूम कि आसमान व ज़मीन का मालिक अल्लाह है। वह जिसे चाहे (अपने मर्ज़ी और अदालत से) सज़ा दे। और जिसे चाहे माफ़ कर दे। अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है। (बुराईयाँ फैलाने वालो और चोरी करने वालो को ज़िल्लत और सज़ा देता है। और तौबा करने वालो ,शर्मिदा होने वालो और ख़ुद को सुधारने वालो की तौबा को स्वीकार करता है और माफ़ कर देता है।)
1- अल्लाह को इंसानो के तौबा की कोई ज़रूरत नही है। क्योकि सब उसके मोहताज है। (لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ)
2- चोरी करने वालो और बुराईयाँ फैलाने वालो के लिये सारे रास्ते बंद है अत: उन्हे अल्लाह की तरफ़ पलट जाना चाहिये। (لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ)
3- इंसान को उम्मीदी व ना उम्मीदी की हालत में होना चाहिये। (يُعَذِّبُ مَن يَشَاء وَيَغْفِرُ لِمَن يَشَاء)
يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ لاَ يَحْزُنكَ الَّذِينَ يُسَارِعُونَ فِي الْكُفْرِ مِنَ الَّذِينَ قَالُواْ آمَنَّا بِأَفْوَاهِهِمْ وَلَمْ تُؤْمِن قُلُوبُهُمْ وَمِنَ الَّذِينَ هِادُواْ سَمَّاعُونَ لِلْكَذِبِ سَمَّاعُونَ لِقَوْمٍ آخَرِينَ لَمْ يَأْتُوكَ يُحَرِّفُونَ الْكَلِمَ مِن بَعْدِ مَوَاضِعِهِ يَقُولُونَ إِنْ أُوتِيتُمْ هَـذَا فَخُذُوهُ وَإِن لَّمْ تُؤْتَوْهُ فَاحْذَرُواْ وَمَن يُرِدِ اللّهُ فِتْنَتَهُ فَلَن تَمْلِكَ لَهُ مِنَ اللّهِ شَيْئًا أُوْلَـئِكَ الَّذِينَ لَمْ يُرِدِ اللّهُ أَن يُطَهِّرَ قُلُوبَهُمْ لَهُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ وَلَهُمْ فِي الآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ 41
ऐ पैग़म्बर, जो लोग कुफ़्र की राह में जल्दी करते है उनसे दुखी होने की आवश्यकता नही है। वह गिरोह जो (बहुमुखी) ज़बान से कहते है कि हम ईमान लाये, लेकिन वह दिल से ईमान नही लाये है। और उन यहूदियों से भी दुखी होने की ज़रूरत नही है जो तुम्हारी बात को बड़े ध्यान से सुनते है ताकि तुम्हारी बात में झूठ को मिला सकें। वह उस दूसरे गिरोह के जासूस है। जो अभी तुम्हारे पास नही आये है। वह लोग आसमानी क़ानूनो के मतलब को बदल देते है। और एक दूसरे से कहते है: अगर यह हमारी बातों के अनुसार बातें कहें तो उन से स्वीकार कर लो। लेकिन अगर हमारी बातों के खिलाफ़ कहें तो उन से दूरी कर लो। अल्लाह जिसे चाहता है सज़ा देता है और बेईज़्ज़त करता है, तुम अल्लाह की सज़ा के सामने कुछ भी नही कर सकते। वह, वह लोग है जिन्हे अल्लाह ने पाक नही करना चाहा है। (बीमार दिल और हटधर्म लोगो ने अपने ऊपर ख़ुद से मार्गदर्शन के रास्तों को बंद किया है।) ऐसे लोगो के लिये दुनिया में बदनामी और क़यामत में भारी सज़ा है।
1- नबियों के दिल गुमराह (भटके हुए) लोगो के लिये दुखते है। (لاَ يَحْزُنكَ)
2- दूसरों के कुफ़्र से पैग़म्बर के संकल्प पर कोई असर नही पड़ना चाहिये। (لاَ يَحْزُنكَ)
3- ईमान दिल से होना चाहिये सिर्फ़ ज़बान से नही। (بِأَفْوَاهِهِمْ, قُلُوبُهُم)
4- मुनाफ़िक़ीन (बहुमुखी) और यहूदी एक साथ एक लक्ष्य हासिल करना चाहते है। (وَمِنَ الَّذِينَ هِادُواْ)
5- किसी बात का सुनना महत्व नही रखता है। बल्कि उसका लक्ष्य महत्वपुर्ण होता है। (سَمَّاعُونَ لِلْكَذِبِ)
6- काफ़िरो ने मुसलमानो के दरमियान अपने जासूस छोड़े हुए है। अत: उलामा को अपने सारे सुनने वालो को शरीफ़ नही समझना चाहिये। (سَمَّاعُونَ لِقَوْمٍ آخَرِينَ)
7- तहरीफ़ (अल्लाह की बात में फेर बदल कर देना) यहूदियों की तरफ़ से साहित्यिक विश्वासघात है। (يُحَرِّفُونَ الْكَلِمَ)
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