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क़ाबील जिसने यह क़त्ल किया था जब देखा कि दरिन्दे लाश की खोज में है। तो थोड़ीदेर तक उसे अपने कन्धे पर उठाये रखा मगर कब तक वह उसे कन्धे पर रख सकता था। हैरानथा कि क्या करे तभी उसने एक कव्वे को दूसरे कव्वे को दफ़न करते देखा और समझा कि किसतरह से अपने भाई की लाश को दफ़न करे।

आयत के संदेश:

1.कभी कभी जानवर भी अल्लाह के भेजे हुए होते हैं और उनके काम अल्लाह की मर्ज़ी सेउसकी राह में होते है। (فَبَعَثَ اللّهُ غُرَابًا)

2.हर काम से सीख ली जा सकती है। इंसानों को बहुत सी मालूमात जानवरों के ज़रीये हासिलहुई है।

3.खुदा वन्दे आलम कभी कभी छोटे छोटे जानवरों के ज़रीये घमंडी लोगों को ज़लील करता है।ताकि यह बता सके कि हुदहुद और कव्वे से भी इंसान कुछ सीख सकता है। इसलिये उसे घमंडनही करना चाहिये।

4.इंसान को हमेंशा कुछ न कुछ सीखते रहना चाहिये।चाहे जानवरों से ही सीखे।तो मालूम हुआकि अस्ल चीज़ सीखना है चाहे वह किसी से भी हो और किसी जगह भी हो।

5.मुर्दे को ज़मीन में दफ़्न करना चाहिये (शीशे के अन्दर सजा के रखना, ममी बनाना,जलाना......सही नही है।

6.इतिहास गवाह है कि हमेंशा इंसान ने ज़्यादातर बातें अनुभव से सीखी हैं। मनुष्य केइतिहास में अनुभव से सीखना बहुत पुरानी बात है।

7.शर्मिन्दा होना, इन्सानी ज़मीर के हक़ तलब होने को बताता है। (فَأَصْبَحَ مِنَالنَّادِمِينَ)

مِنْ أَجْلِ ذَلِكَ كَتَبْنَا عَلَى بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنَّهُ مَن قَتَلَنَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَجَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا وَلَقَدْ جَاءتْهُمْ رُسُلُنَا بِالبَيِّنَاتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرًا مِّنْهُم بَعْدَ ذَلِكَ فِيالأَرْضِ لَمُسْرِفُونَ 32

अनुवाद:

इसी वजह से हमने बनी इसराईल के लिये क़रार दिया कि जो भी किसी इंसान को क़त्लकरे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन पर फ़साद फैलाया हो, तो ऐसाहै जैसे उसने सारी दुनिया के लोगों को क़त्ल कर डाला हो और जिसने भी किसी इंसान कोज़िन्दा किया (उसकी जान बचायी) ऐसा है जैसे उसने सारी दुनिया के लोगों की जानबचायी। निसंदेह हमारे दूत उनके लिये रौशन दलीलें लाये। फिर भी उनमें से बहुत से लोग(नबियो के आयत के संदेश सुनने के बाद भी) फ़ुज़ूल ख़र्च करने वालो में से हो गये।

आयत के संदेश:

1-बहुत से इतिहासिक वाक्ये अल्लाह के हुक्म के आने का कारण बन जाते हैं। (مِنْ أَجْلِذَلِكَ)

2-इतिहास में हमेशा से इंसान और उसके करतूत एक दूसरे से जुड़े हुए है। (مِنْ أَجْلِذَلِكَ كَتَبْنَا عَلَى بَنِي إِسْرَائِيلَ)

3-सारे इंसानों की जान चाहे वह जिस भी क़बीले और जगह के हों, एहतेराम के क़ाबिल हैं।(نَفْسًا)

4-इंसानों का क़त्ल सिर्फ़ दो जगह सही है:

क-क़ातिल से क़िसास (बदला) लेने के लिये।

ख-बुराईयों को ख़त्म करने के लिये।

5-सारे इंसानों की वास्तविक्ता और आत्मा एक ही होती है और सब एक ही जिस्म के टुकड़ेहै। एक इंसान का क़त्ल सारे इंसानों के क़त्ल की तरह है। (فَكَأَنَّمَا قَتَلَالنَّاسَ جَمِيعًا)

6-नबी (स) के क़ौल के अनुसार लोगों को सही रास्ता दिखाना एक तरह जिन्दगी देना है।[25] और लोगों को गुमराह करना उन्हे क़त्ल करने की तरह है।

7-अमल और काम की क़ीमत हदफ़ और मक़सद से होती है। ज़ुल्म से एक इंसान को क़त्ल करनाएक समाज के क़त्ल की तरह है। लेकिन क़िसास (बदला) के लिये क़त्ल करना समाज कोज़िन्दगी देना है।

8-एक इंसान की मौत व ज़िन्दगी कभी समाज की ज़िन्दगी और मौत बन जाती है।और कभी कभी एकइंसान का खून बहुत से लोगों के क़त्ल का कारण बन जाता है।

9-अगर दुनिया के सारे लोगों को क़त्ल करना कोई महत्व रखता है तो एक इंसान को क़त्लकरना भी उतना ही महत्वपुर्ण है।

10-हर इंसान में एक बड़े समाज और नये वंश के पैदा करने की योग्यता पाई जाती है। इसलियेएक इंसान को क़त्ल करना कभी एक वंश को ख़त्म करने की तरह है।

11-हदीस में है कि, एक बेगुनाह इंसान को क़त्ल करने की सज़ा, उस इंसान की सज़ा की तरहहै जिसने सारे लोगो को क़त्ल किया हो और एक इंसान को ज़िन्दगी देने का ईनाम सारीदुनिया के लोगों को जिन्दगी देने के ईनाम की तरह है। (तफ़सीरे नुरूस सक़लैन)

12-जिन्दा समाज की पहचान मजबूर लोगों की मदद करना और उनकी जान, माल की रक्षा करना है।(وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا)

13-ख़ुदकुशी और बच्चे गिरवाना भी एक तरह का क़त्ल और हराम (नाज़ाएज़) है।

14-किसी इंसान का हक़ मारना समाज को ना अम्न करना है। (فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَجَمِيعًا)

15-ज़मीन पर बुराई फैलाने और लोगों की जानों का महत्व न समझने वालों का ख़ून बेक़ीमतहै। (بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ)

16-इंसानी जान की सुरक्षा करने वाले जैसे डाक्टर, नर्स, फ़ायर बिर्गेड कर्मचारी, मददकरने वाले, दवा बनाने वाले......उन्हे अपना और अपने काम के महत्व का एहसास होनाचाहिये।

(فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا)

17-इंसान आज़ाद है, रसूलों (दूतों) के संदेशों के बावजूद ग़लत रास्ता चुन सकता है।(بَعْدَ ذَلِكَ)

18-लोगों के ईमान ना लाने का ग़म नही करना चाहिये कि इतिहास में हमेंशा से ऐसा होतारहा है। (كَثِيرًا مِّنْهُم بَعْدَ ذَلِكَ فِي الأَرْضِ لَمُسْرِفُونَ)

إِنَّمَا جَزَاء الَّذِينَ يُحَارِبُونَ اللّهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِيالأَرْضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُواْ أَوْ يُصَلَّبُواْ أَوْ تُقَطَّعَ أَيْدِيهِمْوَأَرْجُلُهُم مِّنْ خِلافٍ أَوْ يُنفَوْاْ مِنَ الأَرْضِ ذَلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِيالدُّنْيَا وَلَهُمْ فِي الآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ 33

अनुवाद:

बेशक अल्लाह और रसूल (दूत) से जंग करने वाले ज़मीन पर बुराई फैलाने वाले है औरउनकी सज़ा यह है कि क़त्ल किये जायें, सूली पर चढाये जायें, उनके हाथ पैर काट दियेजायें (एक तरफ़ से हाथ तो दूसरी तरफ़ से पैर)[26] या यह कि उन्हे उनके शहर से निकाल दिया जाये। यह उनकी दुनयावी सज़ा है और आख़िरतमें उनके लिये दर्दनाक सज़ा है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

इस आयत के आने के बारे में मिलता है कि मुश्रेकीन में से कुछ लोग मदीने आये औरमुसलमान हो गये। चुकि वह लोग बीमार थे। इसलिये पैग़म्बर (स) के हुक्म से मदीने केबाहर एक अच्छे इलाक़े में चले गये और उन्हे इजाज़त दी गयी कि वह ज़कात के ऊँटों कादूध पी सकते है। जब वह ठीक हो गये तो उन्होने एक मुसलमान चरवाहे को पकड़ कर उसकेहाथ पैर काट डाले, उसकी आँखे फोड़ डालीं, उसके रेवड़ को बर्बाद कर डाला और इस्लामसे मुह फ़ेर लिया। पैग़म्बर (स ) ने उनको पकड़ कर उनके साथ वही करने का हुक्म दियाजो उन्होने उस चरवाहे के साथ किया था। उस समय यह आयत उतरी।

यह सज़ायें जो आयत में आयी हैं। (अल्लाह का हक़) है।और इसमें माफ़ी नही हो सकती।(तफ़सीरे अतयबुल बयान)[27]

आयत के संदेश:

1. समाज की भलाई के लिये समझाना भी ज़रूरी है औरधमकाना भी, और क़ानून को सख़्ती से लागू करना भी। (इससे पहले वाली आयत में क़ातिलको धमकी दी गयी है और इसमें बुराई करने वालों की सज़ायें बयान की गयी हैं।

2. अल्लाह के भक्तों से जंग अल्लाह से जंग औरउसके बन्दों से सुलह अल्लाह से सुलह है।

3. समाजी शांती के लिये कई तरह की सज़ायेंनियुक्त की गयी हैं। जैसे: फाँसी, जिलावतनी, हाँथ पैर काट देना, सूली पर चढा देना।

4. सज़ा न्याय के साथ होनी चाहिये जैसे बुराई औरबुराई करने वाले अलग अलग तरह के होते है वैसे ही सज़ा भी अलग अलग होनी चाहिये न किसबके लिये एक जैसी। हदीसों से यह समझ में आता हैकि अगर बुराई बड़ी हो तो उसकी सज़ाक़त्ल है और अगर बुराई छोटी हो तो उसकी सज़ा भी छोटी होती है। जैसे: क़त्ल की सज़ाफ़ाँसी, डराने धमकाने की सज़ा जिलावतनी, चोरी की सज़ा हाँथ पैर काटना, क़त्ल वडकैती की सज़ा हाँथ पैर काट कर सूली पर चढा देना है। (तफ़सीरे साफ़ी)

5. पेशावर ज़ालिमों के लिये सख़्त सज़ा है।(وَيَسْعَوْنَ,يُحَارِبُونَ)

6. अल्लाह के अहकाम इस्लामी हुकूमत में ही जारीहो सकते है। दीन को सियासत से अलग करके नही।

7. हुकूमत की ज़िम्मेदारी देश के शहरों, देहातोंऔर सड़को..... पर अम्न बनाये रखना है।

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