') //-->
next | back |
5. नेमतों में से उस ख़ास नेमत को याद रखना चाहिये। (آتَاكُم مَّا لَمْ يُؤْتِ أَحَدًا....जो तुम्हारे अलावा किसी और को नही दी गयी)[23]
6. नबीयों की ज़िम्मेदारी है कि वह लोगों को अल्लाह की नेमतों को याद दिलाये। (اذْكُرُواْ نِعْمَةَ اللّهِ)
7. इतिहास से नसीहत लो, मूसा की क़ौम अल्लाह के ख़ास लुत्फ़ व करम और हुकूमत पाने के बावजूद ज़लील हुए। (مَّا لَمْ يُؤْتِ أَحَدًا مِّن الْعَالَمِينَ)
يَا قَوْمِ ادْخُلُوا الأَرْضَ المُقَدَّسَةَ الَّتِي كَتَبَ اللّهُ لَكُمْ وَلاَ تَرْتَدُّوا عَلَى أَدْبَارِكُمْ فَتَنقَلِبُوا خَاسِرِينَ 21
(मूसा ने कहा) ऐ मेंरी क़ौम उस मुक़द्दस सरज़मीन पर जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिये बनाया है, दाख़िल हो जाओ और अपने अतीत की तरफ़ मत पलटना नही तो नुक़सान उठाओगे।
(पवित्र ज़मीन) से मुराद या तो शामात (सीरिया, जार्डन, फ़िलिस्तीन.....) है। या फिर बैतुल मुक़द्दस।
पीछे की तरफ़ न पलटना (وَلاَ تَرْتَدُّوا) का मतलब या रास्ते से लौट जाना है या अल्लाह के हुक्म और फ़रमान(कथन) से मुँह फेर लेना है।
1- मार्गदर्शक और लोगों के दरमियान मुहब्बत का गहरा रिश्ता होना चाहिये। (يَا قَوْمِ)
2- सारी ज़मीने एक जैसी नही हैं।बल्कि कुछ ज़मीने पवित्र है। (الأَرْضَ المُقَدَّسَةَ)
3- बनी इसराइल बुराई करने के आदी हो चुके थे इस लिये उन को पीछे(अपने वंश) की तरफ़ लौटने से मना किया गया। (وَلاَ تَرْتَدُّوا)
4- अल्लाह का अपने भक्तों का ख़्याल रखने की कुछ शर्ते है। (इस आयत में बयान किया गया है कि पवित्र ज़मीन को उनके लिये बनाया गया है। (كَتَبَ اللّهُ لَكُمْ) दूसरी आयत में चालीस साल उस इलाके में रहने पर पाबंदी (नाज़एज़ होना) को बयान किया गया है। (فانهامحرمة عليهم اربعين سنة)
5- धर्म से फिर जाने या फ़रार करने का नतीजा नुक़सान ही नुक़सान है।
6- मुक़द्दस ज़मीनों को ग़लत लोगो के चंगुल से निकालना चाहिये। (ادْخُلُوا الأَرْضَ المُقَدَّسَةَ)
قَالُوا يَا مُوسَى إِنَّ فِيهَا قَوْمًا جَبَّارِينَ وَإِنَّا لَن نَّدْخُلَهَا حَتَّىَ يَخْرُجُواْ مِنْهَا فَإِن يَخْرُجُواْ مِنْهَا فَإِنَّا دَاخِلُونَ 22
उन्होने (बनी इसराईल ने जवाब में) कहा: ऐ मूसा, उस जगह पर ज़ालिम लोग रहते है हम वहा हरगिज़ नही जायेगे, मगर यह कि उन सब को वहा से निकाल दिया जाये, अगर उन लोगों को वहाँ से निकाल दिया जाये तो हमें वहा आने में कोई हरज नही है।
(جَبَّار) जब्र से बना है। और इसका अर्थ किसी चीज़ को ग़ुस्से और सख़्ती से सुधारना है। और कभी अलग अलग इन दोनो मायनी में इस्तेमाल होता है। (1) सुधारना (2) ग़ुस्सा और ज़ोर। अल्लाह के बारे में दोनो मायनी में इस्तेमाल होता है। (तफ़सीरे नमूना)
(قَوْمًا جَبَّارِينَ) से मुराद सामी वंश के अमालेक़ा थे। जो अरब के उत्तरी इलाक़े के सिना नामी रेगिस्तान में ज़िन्दगी गुज़ारते थे। और उन्होने मिस्र पर हमला करके वहाँ पाच सौ साल तक हुकूमत करते रहे। (दाएरतुल मआरिफ़े फ़रीद वजदी)
आयत के संदेश:
1- किसी जगह नालाएक़ लोगो के रहने का यह मतलब नही है कि लाएक़ लोगों को वहाँ से निकाल दिया जाये। बल्कि दुश्मन को बाहर निकालना चाहिये। और उनके ख़ुद से चले जाने का इन्तेज़ार नही करना चाहिये।
2- सुस्ती करना ठीक नही है। बल्कि काम करना चाहिये और दुश्मन को बाहर करने के लिये मदद माँगना चाहिये।
3- जंग में सुस्ती और हारने का सबब ख़ुद को कम समझना और डरना है। [24](لَن نَّدْخُلَهَا)
قَالَ رَجُلاَنِ مِنَ الَّذِينَ يَخَافُونَ أَنْعَمَ اللّهُ عَلَيْهِمَا ادْخُلُواْ عَلَيْهِمُ الْبَابَ فَإِذَا دَخَلْتُمُوهُ فَإِنَّكُمْ غَالِبُونَ وَعَلَى اللّهِ فَتَوَكَّلُواْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ 23
अल्लाह के दो डरने वाले भक्त जिन्हे अल्लाह ने (अक़्ल व ईमान व बहादुरी) दी थी। उन्होने कहा: शहर के दरवाज़े से दुश्मन पर हमला करो (और डरो नही) अगर तुम शहर में घुस गये तो समझ लो जीत तुम्हारी है। और अगर ईमान वाले हो तो अल्लाह पर भरोसा रखो।
क़ुरआन की सविस्तार वाली किताबों में है कि वह दोनो बनी इसराईल के बारह ख़लीफ़ाओं में से थे। और उनके नाम: यूशा इब्ने नून और कालिब इब्ने यूफ़ना था। और उनके नाम तौरेत के सिफ़रे तसनीया में आये है। (तफ़सीरे नमूना)
तफ़सीरे अल मीज़ान में है: कुरआन में (नेमत) शब्द जहाँ भी बग़ैर क़ैद के इस्तेमाल हुआ है। उस नेमत से मुराद नबुव्वत और उसके उत्ताराधिकारी की नेमत है।
1. अल्लाह से डरना, अल्लाह के लुत्फ़ व करम और उसकी नेमतों के मिलने का ज़रीया है। (يَخَافُونَ أَنْعَمَ اللّهُ عَلَيْهِمَا)
2. जो अल्लाह से डरता वह दूसरी किसी ताक़त से नही डरता। (يَخَافُونَ .....ادْخُلُواْ)
3. तुम आगे बढो, अल्लाह बरकत और कामयाबी देगा। (ادْخُلُواْ عَلَيْهِمُ ......غَالِبُونَ)
4. हमले के वक़्त लड़ने फ़ौज को हौसला देना चाहिये। (ادْخُلُواْ .....فَإِنَّكُمْ غَالِبُونَ)
5. ख़ुलूस के साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह पर भरोसा होना चाहिये। (وَعَلَى اللّهِ فَتَوَكَّلُواْ)
6. हमला व बहादुरी भी ज़रूरी है।और तक़वा व परहेज़गारी भी। (يَخَافُونَ .....ادْخُلُواْ)
7. तुम्हारा दिलेराना हमला दुश्मन के पीछे हटने और उसकी कमज़ोरी का कारण बन सकता है। (ادْخُلُواْ .....غَالِبُونَ)
8. कामयाबी की अस्ल दो चीज़े है। (1) ईमान और अल्लाह पर भरोसा (2) इरादा और बहादुरी, न कि सिर्फ़ दुनयावी चीज़े (फ़ौज,हथियार.....)
9. अल्लाह पर भरोसे के साथ कोशिश भी ज़रूरी है। (ادْخُلُواْ .....فَتَوَكَّلُواْ)
10. दुश्मन पर हमला अगर ख़ुलूस और अल्लाह पर भरोसा करते हुए हो तो आख़िर में कामयाबी यक़ीनी है।
11. अल्लाह से डरने और तक़वे से, इंसान को हर मसले से निपटने और उसको अच्छी तरह हल करने की शक्ती प्राप्त होती है। (يَخَافُونَ.....ُ فَإِنَّكُمْ غَالِبُونَ)
12. अल्लाह पर भरोसा सिर्फ़ ज़बानी नही होता। बल्कि ईमान की गहराईयो से होता है।
(فَتَوَكَّلُواْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ)
قَالُواْ يَا مُوسَى إِنَّا لَن نَّدْخُلَهَا أَبَدًا مَّا دَامُواْ فِيهَا فَاذْهَبْ أَنتَ وَرَبُّكَ فَقَاتِلا إِنَّا هَاهُنَا قَاعِدُونَ 24
उन्होने (बनी इसराईल) कहा: ऐ मूसा, जब तक वह ज़ालिम उस शहर में है, हम कभी भी उसमें नही जायेगें। लिहाज़ा तुम और तुम्हारा ख़ुदा जाकर लड़े, हम यही बैठे हुए है।
मक्का और बैतुल मुक़द्दस दोनों पवित्र ज़मीनें हैं। लेकिन मूसा ने अपनी क़ौम से कहा: उन शहरों में जाओ और दुश्मन से लड़ो, उन्होने ने बहाना किया और उनके हुक्म को नही माना। लेकिन जब छ: हिजरी में मुसलमान उमरे के लिये पैग़म्बर (स) के साथ मक्के के क़रीब तक आए और अगर पैग़म्बर (स) ने मना कर दिया तो किसी ने शहर पर हमला नही किया जबकि लोग हमला करना चाहते थे। इस सफ़र में होदयबिया नामी सुलह हुई। हाँ, यही फ़र्क़ है, दोनों क़ौमें दो मुक़द्दस शहरों के दरवाज़ों तक आयीं मगर एक इतनी डरपोक थी और दूसरी ऐसी निडर।
1. बनी इसराईल ,बदतमीज़ी, बहानेबाज़ी, बुज़दीली और काहिली का नमूना थे। और (إِنَّا) जैसे शब्द से अपनी बड़ाई जताते थे। (لَن نَّدْخُلَهَا) (कभी भी नही जायेगें) जैसे शब्द से अल्लाह के हुक्म (ادْخُلُواْ), जो इससे पहले वाली आयत में आया है) के मुक़ाबले में उनकी बदतमीज़ी ज़ाहिर होती है।
(أَبَدًا) जैसे शब्द से कई बार बदतमीज़ी करना ज़ाहिर होता है।
(فَاذْهَبْ) जैसे शब्द से हज़रत मूसा की बेइज़्ज़ती देखने में आती है।
(وَرَبُّكَ) जैसे शब्द से अल्लाह की ज़ात की बेइज़्ज़ती होती है।
(قَاعِدُون) से उनकी आराम तलबी का पता चलता है न कि इज़्ज़त तलबी का।
2. बजाए इसके कि ख़ुद समाज को सुधारते, अल्लाह और पैग़म्बरों (दूतों) से इसकी उम्मीद करते थे। (فَقَاتِلا إِنَّا هَاهُنَا قَاعِدُونَ)
3. वह क़ौम कामयाबी के लिये भी हिलने को तैयार नही थी। (هَاهُنَا)
4. दुश्मनों से लड़ने में बनी इसराईल की सुस्ती इतनी मशहूर थी कि, बद्र की जंग (सन् 2 हिजरी में) शुरू होने से पहले और मक्के में दाख़िल होने से पहले (सन् 6 हिजरी में) जब काफ़िरों ने दाख़िल होने से रोका और होदयबिया नामी सुलह हुई, मुसलमान भी कह रहे थे: हम बनी इसराईल की तरह नही है जो إِنَّا هَاهُنَا قَاعِدُونَ (हम यही बैठे रहेगे) कहेगे, हम हमेंशा जंग के लिये तैयार रहते है।
قَالَ رَبِّ إِنِّي لا أَمْلِكُ إِلاَّ نَفْسِي وَأَخِي فَافْرُقْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ الْقَوْمِ الْفَاسِقِينَ 25
(मूसा (अ) ने) कहा: परवरदिगारा, मैं अपने और अपने भाई के अलावा किसी पर क़ुदरत नही रखता, तू हमारे और उस ज़ालिम क़ौम के दरमियान दूरी डाल दे।
हज़रते मूसा ने यह बददुआ, बनी इसराईल की हरकतों से मायूस हो जाने के बाद की, दूरी रखने की प्रार्थना इस लिये थी कि अल्लाह के ग़ुस्से की आग मूसा (अ) के दोस्तों को न जला दे, और उसका शिकार सिर्फ़ दुश्मन हों, या इस लिये थी कि मौत के ज़रीये उनके और उनके दुश्मनों के दरमियान फ़ासला हो जाये।
इस बारे में कि हज़रते मूसा (अ) ने क्यों सिर्फ़ अपना और अपने भाई का ज़िक्र किया और उन दो मोमिन इंसानों का, जो हज़रते मूसा (अ) के तरफ़दार थे। और लोगों को शहर में दाख़िल होने की दावत दे रहे थे, कोई ज़िक्र नही किया है। इस बारे में व्याख्या करने वालों ने इस तरह बयान किया है,
तफ़सीरे मराग़ी में है: मूसा (अ) को इन दोनों लोगों के हक़ की राह पर बाक़ी रहने का विश्वास नही था।
next | back |