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8. अल्लाह की किताब का एक असली और पुर्ण क़ानून,शिष्टाचार को ध्यान में रखना है। (لاَمَسْتُمُ النِّسَاء) सिर्फ़ हक़ का मसला हैजहाँ क़ानून बे पर्दा बयान होता है ताकि किसी का हक़ न मारा जाए। जैसे आयत (दख़लतुमबेहिन्ना) जो औरतों के मेहर के हक़ के बारे में है। और हज़रते मरियम पर लगे इल्ज़ामको बेबुनियाद करने के लिये भी अल्लाह ने कहा है (अहसनत फ़रजहा)
9. कभी किसी बात का मतलब एक वाक्य क्या एक शब्दसे बदल जाता है (وَامْسَحُواْ بِرُؤُوسِكُمْ) अगर رُؤُوسِكُمْ होता तो उस का मतलबहोता पूरे सर का मसह करो न कि किसी हिस्से का।
10. दीन में, सख़्ती और दुश्वारी वाले काम नही है। (مِّنْ حَرَجٍ)
11. वुज़ू, ग़ुस्ल और तयम्मुम का मक़सद पाक और अल्लाह से मुलाक़ात के लियेतैयार रहना है।[15] ( لِيُطَهَّرَكُمْ)
12. अल्लाह की तरफ़ से दी गयी ज़िम्मेदारियाँ, इंसान के लिये नेमत है।(وَلِيُتِمَّ نِعْمَتَهُ عَلَيْكُمْ)
13. अल्लाह की तरफ़ से दी गयी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करना उस का शुक्र अदाकरना है।
وَاذْكُرُواْ نِعْمَةَ اللّهِ عَلَيْكُمْ وَمِيثَاقَهُ الَّذِي وَاثَقَكُم بِهِإِذْ قُلْتُمْ سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَاتَّقُواْ اللّهَ إِنَّ اللّهَ عَلِيمٌبِذَاتِ الصُّدُورِ
अल्लाह की नेमतों को जो उस ने तुम्हे दी है याद करो और उसकी सौगंध को याद करो जोउसने तुम से ली है। जब तुमने यह कहा: हम ने सुन लिया और इताअत की। अल्लाह से डरतेरहो कि वह दिलो के राज़ों का भी जानने वाला है।
अगरचे आयत में एक आम और पुर्ण रुप से धमकी दी गयी है। लेकिन इन दलीलों की वजह सेमुम्किन है इस्लामी समाज का मार्गदर्शक (रहबरी) और उसकी इताअत ख़ास मुराद हो। और वहदलीलें यह है :
1-अल्लाह की तरफ़ से मार्ग दर्शक का भेजा जाना, अल्लाह का वादा है हज़रत इब्राहीम कीकहानी और उनका अल्लाह से अपनी औलाद के लिये इमामत की दुआ करना और ख़ुदा वन्दे आलमका जवाब देना कि ज़ालिमों तक यह पद (इमामत) नही पहुचेगा।
2-ग़दीरे ख़ुम में अली(अ) के मार्गदर्शक बन जाने के बाद, आयत नाज़िल हुई कि आज मैनेअपनी नेमतों को तुम पर तमाम कर दिया।
3-लोगो ने ग़दीरे ख़ुम में अली (अ) के हाथो पर बैअत की और यह भी कहा कि हमने सुना औरइताअत की, शायद दूसरी बार लोगों को ग़दीर में बनाये हुए रहबर से वफ़ादारी की तरफ़बुलाया जा रहा है। पहली आयत में वादे को निभाने का ज़िक्र था, आयते इकमाल की तीसरीआयत में रहबर चुने जाने से दीन के कामिल होने का वर्णन हुआ है, और आयत के आख़िर मेंअल्लाह से डरने को कहा गया है जो दिल की गहराईयों और उसके राज़ों को ज़ानता है।
4-सुनने और इताअत करने का वादा (समेंअना व अतअना) तमाम वादों को शामिल करता है जिसकाइंसान ने फ़ितरी तौर पर या कहने और करने के लिये नबियों से वादा किया है। जैसे उनकाअल्लाह और नबी की बैअत करना और उसकी गवाही देना।
1. नेमतों को याद करना, उसका शुक्र अदा करना है।
2. सबसे बड़ी और सम्पुर्ण नेमत, मार्गदर्शक(रहबरी) की नेमत है।(पहले वाली आयत में गुज़रा कि) उन नेमतों को याद करना, रहबर कीइताअत करना है।
3. यह आयत नेमत, वादा, सुनना और इताअत करना,(ज़ातुस सुदुर) जैसे मतलब पर ज़ोर दे रही है, वह भी ग़दीर वाली आयत के बाद शायदधमकी या इशारा हो कि तीसरी आयत को न भूल जाये और रहबरी के रास्ते से भटक न जाये।(जैसा कि इमाम बाक़िर (अ) ने एक हदीस में फ़रमाया है। (तफ़सीरे नूरुस सक़लैन)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ كُونُواْ قَوَّامِينَ لِلّهِ شُهَدَاءبِالْقِسْطِ وَلاَ يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَى أَلاَّ تَعْدِلُواْاعْدِلُواْ هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَى وَاتَّقُواْ اللّهَ إِنَّ اللّهَ خَبِيرٌبِمَا تَعْمَلُونَ 8
ऐ ईमान वालो हमेंशा अल्लाह के लिये क़याम करने और इंसाफ़ के साथ गवाही देने वालेबनो। और ख़बरदार किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हे इस बात पर तैयार न करे कि इंसाफ़ कोछोड़ दो। इंसाफ़ करो कि यही तक़वे (अल्लाह से डरना) से क़रीब है। और अल्लाह से डरो,कि वह तुम्हारे कारनामों को जानता है।
इसी आयत की तरह थोड़े से फ़र्क के साथ सूरए निसा की 135वी आयत है। (قَوَّامِينَبِالْقِسْطِ شُهَدَاء لِلّهِ وَلَوْ عَلَى أَنفُسِكُمْ أَوِ الْوَالِدَيْنِوَالأَقْرَبِينَ) इंसाफ़ के लिये क़याम करो और अल्लाह के लिये गवाह बन जाओ। चाहेउससे तुम्हे, तुम्हारे माँ बाप और रिश्तेदारों को नुक़सान पहुचे। यानी दुश्मनियाँतुम्हे इंसाफ़ के रास्ते से भटका न दें।
क्योंकि लोगों की दुश्मनियों को नज़र अंदाज़ करना मुश्किल है। इस लिये इस आयतमें कहीं जगह हुक्म दिया गया है और कही शौक़ दिलाया गया है।
1. समाज में इंसाफ़ सिर्फ़ अल्लाह और क़यामत परईमान की वजह से है। (يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ..... اعْدِلُواْ) नही तो अगरअल्लाह और क़यामत व हिसाब किताब न हो तो इंसान किस लिये इंसान रहेगा जो इंसाफ़रखेगा और अपने ग़ुस्से को पी जाया करेगा?
2. अगर इंसान का मक़सद उसकी दुश्मनियाँ हो जायेतो कोई काम अल्लाह के लिये नही रह जायेगा। और अगर क़याम भी अल्लाह के लिये होगा तोदुश्मनियाँ बे असर हो जायेगी।
3. हमेंशा इंसाफ़ करना इस तरह से कि उसकी ख़ूबीऔर आदत बन जाए इसका महत्व है। न कि न्याय सिर्फ़ कुछ देर के लिये हो। (قَوَّامِينَ)
4. न्याय की सिर्फ़ अख़लाक़ी महत्व नही है। बल्कियह अल्लाह का हुक्म है। (كُونُواْ)
5. दुश्मनी और इन्तेक़ाम, इंसान को न्याय केरास्ते से भटका देती है। (شَنَآنُ قَوْمٍ)
6. अन्दरूनी और बाहरी बल्कि दुश्मनों से राजनितीमें भी न्याय करो। (شَنَآنُ قَوْمٍ)
7. ईमान वाले, अल्लाह के साथ भी और लोगो के लियेभी न्यायपुर्ण गवाही देते है। (شُهَدَاء بِالْقِسْطِ)
8. ज़िम्मेदारी जितनी महत्वपुर्ण होती है उसकेलिये उतनी ही सिफ़ारिश और शौक़ दिलाने की ज़रूरत होती है। क्योकि लोगो कीदुश्मनीयों को भूल जाना बहुत मुश्किल काम है। इसलिये इस आयत में (كُونُوا),(اعْدِلُواْ), (وَاتَّقُواْ) के ज़रीये हुक्म आया है।
9. आयत में जो अदल व क़िस्त आया है। दोनो के अर्थएक ही है। इस लिये कि आयत में क़िस्त का विवरण अदल से किया गया है। (شُهَدَاءبِالْقِسْطِ..... اعْدِلُوا)
10. दुश्मनी दिल में रखने वाला इंसान इंसाफ़ वाला नही बन सकता।
11. न्याय करने वाले इंसान तक़वे से ज़्यादा नज़दीक है। और क़ुरआन उनकेलिये मार्गदर्शन का कारण है।
وَعَدَ اللّهُ الَّذِينَ آمَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّالِحَاتِ لَهُم مَّغْفِرَةٌوَأَجْرٌ
عَظِيمٌ 9 وَالَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِآيَاتِنَا أُوْلَـئِكَأَصْحَابُ الْجَحِيمِ 10
अल्लाह ने ईमान वालो और नेक कर्म वालो से वादा किया है कि उनके गुनाह माफ़ करदिये जायेगे और उन के लिये ढेरों पुन्य है। और जिन लोगों ने कुफ़्र इख़्तियार कियाऔर हमारी निशानियों को झुटलाया उन के लिये नर्क है।
क़ुरआन में अज्र (पुन्य) की कई क़िस्मे इस्तेमाल हुई है : अजरे करीम, अजरे कबीर,अजरे अज़ीम ।
अल्लाह के वादे, जरूर पूरे होगे (ان الله لايخلف الميعاد) (सूरए आले इमरान आयत9)
जहीम (नर्क), जहम से बना है।और आग के तेज़ भड़कने के मानी में है। हज़रतइब्राहीम की दास्तान में आया है कि उन को (जहीम) तेज़ भड़कती हुई आग में डाला गया।(اصحاب الجحيم ) वह लोग जो हमेंशा नर्क में रहेगे।
1. ईमान और नेक कर्म, अतीत का प्रायश्चितऔर भविष्य को बेहतर करने वाला है। (مَّغْفِرَةٌ وَأَجْرٌ)
2. मरने के बाद को याद और अपने अंजाम कोयाद रखना। इंसान के ज़िन्दगी के फ़ैसले करने में महत्व रखता है।
3. मग़फ़िरत (क्षमा) पुन्य की सीढ़ी है।(مَّغْفِرَةٌ وَأَجْرٌ)
4. काफ़िरों और अल्लाह की निशानियों कोझुटलाने वालो की सज़ा, नर्क है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ اذْكُرُواْ نِعْمَتَ اللّهِ عَلَيْكُمْ إِذْهَمَّ قَوْمٌ أَن يَبْسُطُواْ إِلَيْكُمْ أَيْدِيَهُمْ فَكَفَّ أَيْدِيَهُمْعَنكُمْ وَاتَّقُواْ اللّهَ وَعَلَى اللّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ 11
अनुवाद:
ऐ ईमान वालो अल्लाह की नेमतों को याद करो जब कुछ लोगों (दुश्मनों) ने तुम परज़ुल्म करना चाहा (तुम्हे मिटाना चाहा) लेकिन अल्लाह ने उनके हाथों को तुम्हारीतरफ़ बढ़ने से रोक दिया। अल्लाह से डरते रहो कि ईमान वाले अल्लाह ही पर भरोसा करतेहै।
आयत की सूक्ष्मताएं:
अगरचे इस बारे में कि यह आयत किस वाक़ेया के बारे में नाज़िल हुई इख़्तेलाफ़ हैमगर इस को उन सब जगहो के लिये माना जा सकता है जहाँ मुसलमानों ने दुश्मन के हथकन्डोया हमलों के मुक़ाबले में अल्लाह पर भरोसा किया और कामयाब हुए।
आयत के संदेश:
1. अल्लाह की नेमतों को याद करना एक तरह का शुक्रअदा करना और घमंड व नफ़रत से ख़ुद को दूर रखना और अल्लाह से अपनी मुहब्बत को बढ़ानाहै।
2. दुश्मन के ख़तरो से बचना सबसे महत्वपुर्णनेमतों में से है।
3. तक़वा (अल्लाह से डरना) तवक्कुल (अल्लाह परभरोसा करना) और ईमान के साथ अल्लाह का ध्यान हासिल करो और दुश्मन के ख़तरों कोटालो। (जिस तरह अल्लाह पाप करने वालों पर दुश्मन को तैनात कर देता है। अल्लाह काध्यान दुश्मन को टाल देता है।)
وَلَقَدْ أَخَذَ اللّهُ مِيثَاقَ بَنِي إِسْرَآئِيلَ وَبَعَثْنَا مِنهُمُاثْنَيْ عَشَرَ نَقِيبًا وَقَالَ اللّهُ إِنِّي مَعَكُمْ لَئِنْ أَقَمْتُمُالصَّلاَةَ وَآتَيْتُمُ الزَّكَاةَ وَآمَنتُم بِرُسُلِي وَعَزَّرْتُمُوهُمْوَأَقْرَضْتُمُ اللّهَ قَرْضًا حَسَنًا لَّأُكَفِّرَنَّ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْوَلأُدْخِلَنَّكُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الأَنْهَارُ فَمَن كَفَرَبَعْدَ ذَلِكَ مِنكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاء السَّبِيلِ 12
अनुवाद:
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