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فَإِنَّهُ مِنْهُمْ إِنَّ اللّهَ لاَ يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ 51

अनुवाद:

ऐ ईमान वालों, यहूदियों और ईसाईयों पर (भरोसा न करो) और उन्हे अपना दोस्त नबनाओ, क्योकि वह सिर्फ़ एक दूसरे के दोस्त है। और तुम में जो भी उन्हे अपना दोस्तबनाएगा वह उनमें से ही है। निसंदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वाली वंश की सीधा रास्ता नहीदिखाता।

आयत के संदेश:

1-विदेशी राजनीतियों में मुसलमानों पर काफ़िरों को श्रेष्ठता नही होनी चाहिये। [1](لاَتَتَّخِذُواْ) चाहे वह जिस तरह की भी बड़ाई हो, और चाहे वह ज़्यादा माहिर और तजर्बे वाले औरदुनिया देखें हुए हों।

2-दुश्मन से नफ़रत ईमान की शर्त है। (يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَتَتَّخِذُواْ...)

3-जो इस्लामी हुकूमतें काफ़िर हुकूमतों को अपना मालिक समझती है।वह भी उन ही की तरहहै। (فَإِنَّهُ مِنْهُمْ) किसी इंसान या गिरोह की दोस्ती उसे अपना बना लेती है।

4-काफ़िर तुम्हारे ख़िलाफ़ इकठ्ठे हो जायेगें। (بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ)

5-काफ़िरों की हुकूमत को नही मानना चाहिये। क्योकि वह सिर्फ़ अपनी फ़िक्र करते है।[2](بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ)

6-न ही काफ़िरों को अपना मालिक बनाना चाहिये और न ही उनको जो उनकी हुकूमत को मानतेहै। (فَإِنَّهُ مِنْهُمْ)

7-काफ़िरों को मालिक मानने का मतलब है कि हमने अपने असली मालिक अल्लाह से बंधन तोड़लिया है। (لاَ يَهْدِي الْقَوْمَ الفاسقِينَ)

8-काफ़िरों पर भरोसा करना इस्लामी हुकूमत और समाज पर ज़ुल्म करना है। (لاَ يَهْدِيالْقَوْمَ الظَّالِمِينَ)

فَتَرَى الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ يُسَارِعُونَ فِيهِمْ يَقُولُونَنَخْشَى أَن تُصِيبَنَا دَآئِرَةٌ فَعَسَى اللّهُ أَن يَأْتِيَ بِالْفَتْحِ أَوْأَمْرٍ مِّنْ عِندِهِ فَيُصْبِحُواْ عَلَى مَا أَسَرُّواْ فِي أَنْفُسِهِمْنَادِمِينَ 52 وَيَقُولُ الَّذِينَ آمَنُواْ أَهَـؤُلاء الَّذِينَ أَقْسَمُواْبِاللّهِ جَهْدَ أَيْمَانِهِمْ إِنَّهُمْ لَمَعَكُمْ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْفَأَصْبَحُواْ خَاسِرِينَ 53

अनुवाद:

(काफ़िरों को मालिक न बनाने की सारी सदुपदेशों के बावजूद) कुछ बीमार दिल लोग ऐसेभी है जो काफ़िरों से दोस्ती में एक दूसरे से जल्दी करते है। (और अपने काम की वजहबताते हुए कहते है: हम डरते है कि हमारे ईमान के साथ कोई बात पेश न आ जाये।(और हमेंउनकी मदद की ज़रूरत पड़ जाये) तो उम्मीद है कि अल्लाह (मुसलमानों के फ़ायदे केलिये) अपनी तरफ़ से कोई कामयाबी या इसी तरह कोई काम लाये। तो उस समय उन मुनाफ़िक़लोगों के दिलों में जो कुछ है उससे उन्हे लज्जा आयेगी।

(मुसलमानों की कामयाबी और बहुमुखियों की बेईज़्ज़ती के समय) मोमिनीन (आश्चर्यसे) कहेंगें: यही लोग थे जो सख़्ती के साथ अल्लाह की कसम खाते थे कि हम तुम्हारेसाथ है? (क्यों यह इस हालत तक पहुच गये?) कि उनकी नेकियाँ बर्बाद हो गयी और वह घाटेमें रह गये।

आयत के संदेश:

1-बीमार दिल और सुस्त ईमान वाले बहुत जल्दी काफ़िरों से दोस्ती के लिये बढ़ते है।(فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ يُسَارِعُونَ)

2-बीमार दिल, कम ईमान और बहुमुखी लोग काफ़िरों का ही हिस्सा है। (يُسَارِعُونَفِيهِمْ) कहा गया है न कि عليهم)

3-बड़ी ताक़तों से बेईज़्ज़ती के साथ मेल रखने की वजह ईमान की कमज़ोरी और अल्लाह केअलावा दूसरों से डरना है। (يَقُولُونَ نَخْشَى)

4-मुसलमान इस्लाम की कामयाबी, उसकी बढ़ोत्तरी और बहुमुखों के भेद खुल जाने और..... केउम्मीदवार रहें। (فَعَسَى اللّهُ أَن يَأْتِيَ بِالْفَتْحِ....)

5-राजनितिक ईज़्ज़त, वाणिज्यिक ताक़त और फ़ौजी जीत सब अल्लाह की तरफ़ से और उसके हाथमें है। (بِالْفَتْحِ أَوْ أَمْرٍ مِّنْ عِندِهِ)

6-ताक़तें और हुकूमतें बदलती रहती है। (دَآئِرَةٌ)

7-भविष्य से डरना दिल के बीमार होने और अल्लाह पर ईमान और भरोसे की कमी होने कीनिशानी है।

8-डर को बहाना बनाना एक बहाना है सच्चाई नही, ( يَقُولُونَ نَخْشَى) और अगर सच में डरहै तो पहली बात तो यह कि शर्मिन्दगी की कोई बात नही है।और दूसरे आयत में सिर्फ़(يخشع الناس) कहा जाता।

9-काफिरों से मालिकों वाला मेल जोल नही होना चाहिये ताकि अल्लाह की छुपी हुई मदद कीतुम पर बारिश हो। (أَمْرٍ مِّنْ عِندِهِ)

10-निफ़ाक़ (बहुमुखी) का अंजाम नेकीयों का छिन जाना और बेईज़्ज़ती व शर्मिन्दगी है।(نَادِمِينَ)

11-बहुमुखों की सौगंधों से धोखा नही खाना चाहिये। (أَقْسَمُواْ بِاللّهِ)

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ مَن يَرْتَدَّ مِنكُمْ عَن دِينِهِ فَسَوْفَيَأْتِي اللّهُ بِقَوْمٍ يُحِبُّهُمْ وَيُحِبُّونَهُ أَذِلَّةٍ عَلَىالْمُؤْمِنِينَ أَعِزَّةٍ عَلَى الْكَافِرِينَ يُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللّهِوَلاَ يَخَافُونَ لَوْمَةَ لآئِمٍ ذَلِكَ فَضْلُ اللّهِ يُؤْتِيهِ مَن يَشَاءوَاللّهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ 54

अनुवाद:

ऐ ईमान वालो, तुम में से जो भी अपने धर्म से फिर जायेगा (अल्लाह को कोई नुक़साननही पहुचाएगा क्योकि) अल्लाह भविष्य में एक ऐसे वंश को लायेगा जिन्हे वह दोस्त रखताहै। और वह भी अल्लाह को दोस्त रखते है। और मोमिनीन से नर्म और काफ़िरो से कठोरबर्ताव करते है अल्लाह की राह में जिहाद (जंग) करते है और उसकी राह में जिहाद करनेसे किसी की परवाह नही करते है यह अल्लाह की कृपा (करम) है वह जिसको चाहता है देताहै, और बेशक अल्लाह बहुत ज़्यादा देने वाला और जानने वाला है।

आयत की सूक्ष्मताएं:

हदीस में है कि जब यह आयत आयी, पैग़म्बर (स) ने सलमान फ़ारसी के कंधे पर हाथ रखाऔर फ़रमाया: यह आयत तुम्हारे देश के वासियों के बारे में है। (तफ़सीरे नुरुससक़लैन)

इससे पहले वाली आयत में काफ़िरों और बहुमुखों की हुकूमत के खतरों का वर्णन है।औरइस आयत में इरतेदाद (इस्लाम से फिर जाना) की बात आयी है। शायद यह भेद हो कि निफ़ाक़(दिल में कुछ ज़बान पर कुछ), दोस्ती और काफ़िरों से मेल जोल का अंजाम इरतेदाद(इस्लाम से फिर जाना) है।

आयत के संदेश:

1- आज़ाद ख़्याद मार्गदर्शक को अपने मानने वालों के धर्म सेफिर जाने का शक करते रहना चाहिये। (مَن يَرْتَدَّ مِنكُمْ)

2- हर मोमिन को अपने अच्छे अंजाम की फ़िक्र होनी चाहिये।(آمَنُواْ ,يَرْتَدَّ)

3- मार्ग दर्शक के ज़रूरी है कि वह ऐलान करे कि लोगों के धर्मसे फिर जाने से हमारे रास्ते में कोई रुकावट नही आयेगी।

4- धर्म से फिर जाना, धर्म और अल्लाह की सही पहचान और मुहब्बतन होने का कारण है। (يَأْتِي اللّهُ بِقَوْمٍ يُحِبُّهُمْ وَيُحِبُّونَهُ)

5- अल्लाह अपने चाहने वालों को ले आयेगा और आप की कोई ज़रूरतनही होगी। इसलिये आप उस पर अहसान न करें। (فَسَوْفَ يَأْتِي اللّهُ)

6- ईमान, ग़लत रीति रिवाज और जाहिलीयत के ज़माने की आदतों कोतोड़ने की राह में बुरा भला कहने वालों और दुश्मन के बदनाम करने से डरना नहीचाहिये।और स्थिती, लोग, जगह, संख्या के आगे झुकना नही चाहिये। (وَلاَ يَخَافُونَلَوْمَةَ لآئِمٍ)

7- मुसलमान अपने धर्म संम्बन्धियों के साथ नर्मी और दुश्मन केसाथ कठोरता से पेश आता है। नर्मी व सख़्ती की और कोई बुनियाद नही है। (أَذِلَّةٍ,أَعِزَّةٍ)

8- अल्लाह की मेहरबानी सिर्फ़ माल व पद से नही है। अल्लाह सेमुहब्बत उसकी राह में जिहाद, उसके धर्म पर बाक़ी रहना, यह सब भी उसके करम की निशानीहै।

9- अल्लाह और उसके भक्तों की दोस्ती इंसान के कमाल में से एकहै। [3](يُحِبُّهُمْ وَيُحِبُّونَه)

إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللّهُ وَرَسُولُهُ وَالَّذِينَ آمَنُواْ الَّذِينَيُقِيمُونَ الصَّلاَةَ وَيُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَهُمْ رَاكِعُونَ 55

अनुवाद:

तुम्हारा वली (हाकिम, मालिक) सिर्फ़ अल्लाह, उसका रसूल (दूत) और वह लोग हैं। जोईमान लाये और नमाज़ क़ायम करते हैं और नमाज़ में रुकू की हालत में ज़कात (दान) देतेहै।

आयत की सूक्ष्मताएं:

इस आयत के उतरने की वजह यह है कि एक दिन एक भिखारी मस्जिदुन नबी में आया औरलोगों से भीख माँगने लगा किसी ने इसे कुछ नही दिया। अली (अ) ने जो नमाज़ पढ़ रहेथे, इशारे से उसे बुलाया और रुकू की हालत में अँगूठी फ़क़ीर को दे दी, उस समय इसदान के ईनाम के तौर पर यह आयत नाज़िल हुई।

इस वाक़ये को सहाबियों में से दस लोगों ने बयान किया है। जैसे: इब्ने अब्बास,अम्मारे यासिर, जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी, अबूज़र ग़फ़्फ़ारी, अनस इब्नेमालिक, बिलाल हबशी और....) और शिया सुन्नी सब इसको मानते है।[4]

अम्मारे यासिर कहते है कि नमाज़ में अँगूठी दान करने के बाद और यह आयत उतरने केबाद पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया: (من كنت مولاه فه علي مولاه) जिस का मै सरदार हूँउसके यह अली, सरदार है। (तफ़सीरे अलमीज़ान)

अल्लाह के नबी ने ख़ुम के मैदान में अली की श्रेष्ठता को सिध्द करने के लिये यहआयत पढ़ी। (तफ़सीरे साफ़ी) और ख़ुद अली (अ) ने अपने हक़ को साबित करने के लिये बहुतबार इस आयत को पढ़ा है। (तफ़सीरे अलमीज़ान) हज़रते अबूज़र जो इस वाक़ये के चश्मदीदगवाह थे मस्जिदे नबवी में लोगों को यह वाक़ेया बयान किया करते थे। (तफ़सीरे मजमऊलबयान)

वली शब्द का अर्थ दोस्त व यार नही है। इसलिये कि यारी और दोस्ती सारे मुसलमानोंके लिये है न कि सिर्फ़ उन लोगों के लिये जो नमाज़ में रुकू की हालत में दान देतेहै। हदीसों के अनुसार इस आयत से मुराद अली इब्ने अबी तालिब (अ) हैं। और अनेकता(जमा) का शब्द एक आदमी के लिये उसके आदर और महत्वता को बढ़ाने के लिये प्रयोग होताहै। उदाहरण में मुबाहले की आयत लायी जा सकती है। (انفسنا و انفسكم) यहाँ पर भी एकआदमी के लिये अनेकता (जमा) वाला शब्द आया है।

आयत के संदेश:

1-इस्लाम दोस्ती का धर्म भी है और दुश्मनी का भी, अच्छों को इस्लाम चाहता है, बुरोंके लिये इस्लाम में कोई जगह नही है। इससे पहली वाली आयत में यहूदियों और ईसाईयों कोअपना वली (मालिक) बनाने से मना किया गया है। और यहाँ कहा जा रहा है कि अल्लाह, रसूल(दूत) और अली को अपना वली (हाकिम) बनाओ।

2-अल्लाह, रसूल और हज़रत अली सब एक ही मार्गदर्शन के सिलसिले की कड़ी है। क्योकि(وليكم) कहा गया है। वर्ना (اوليايكم) कहा जाता।

3-आम तौर पर नमाज़ व ज़कात एक साथ बयान होते है। मगर यहाँ इस आयत में दोनों एक दूसरेसे मिलकर प्रयोग हुए है। (रूकू की हालत में ज़कात देना)

4-जो लोग नमाज़ नही पढ़ते और ज़कात नही देते है। उन्हे लोगों पर हुकूमत और उनकेमार्गदर्शक बनने का कोई हक़ नही पहुचता है।

5-ग़रीबों की मदद के लिये अपनी नमाज़ को भी रुकावट नही समझना चाहिये। फ़क़ीर कोमुसलमानों के दरमियान से ख़ाली हाथ नही लौटना चाहिये।


[1] - यहूदियों और ईसाईयों का नाम नमूने के तौर लिया गया है। वर्ना तो किसी भी काफ़िर की बड़ाई को नही माना जाना चाहिये।

 

[3] -शियों और सुन्नियों की हदीसों में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ख़ैबर की जंग में कुछ लीडरों की नाकामी के बाद फ़रमाया कि अल्लाह की क़सम कल मै अलम ऐसे आदमी को दूँगा जिसे अल्लाह और रसूल दोस्त रखते है और वह अल्लाह और रसूल को दोस्त रखता है। और वह हमारे लिये जीत का तोहफ़ा लायेगा। (अहक़ाक़ुल हक़ जिल्द 3 पेज 200) और अगले दिन अलम हज़रत अली (अ) को मिला।

 

[4] - अलग़दीर जिल्द 10, अहक़ाक़ुल हक़ जिल्द 2 पेज 400, कन्ज़ुल उम्माल जिल्द 6 पेज 381 और......

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