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यह सूरह मक्के में नाज़िल हुआ और इसमें सात आयतें हैं।
इसके बाद कहा कि यह सूरह मौत के अलावा हर बीमारी का इलाज है।
अरबी भाषा में उम्म का अर्थ आधार होता है। शायद इसी वजह से कुरआन के सबसे बड़े मुफ़स्सिर इब्ने अब्बास कहते हैं कि हर चीज़ का एक आधार होता है और कुरआन का आधार सूरा-ए- हम्द है।
पैग़म्बरे इसलाम (स.) ने वर्णन किया है कि सूरा-ए-हम्द पढ़ने का सवाब दो तिहाई कुरआन पढ़ने के बराबर है। एक अन्य हदीस में वर्णन है कि सूरा-ए- हम्द पढ़ने का सवाब पूरे कुरआन पढ़ने के बराबर है। अर्थात इस तरह यह सूराह हर मोमिन के लिए भी एक तोहफ़ा है।
इसी तरह हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की हदीस है कि शैतान ने चार बार फ़रियाद की पहली बार उस समय जब उसे अल्लाह के दरबार से निकाला गया। दूसरी बार उस समय जब जन्नत से ज़मीन पर आया तीसरी बार उस समय जब सभी पैग़म्बरों के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को नबूवत दी गई और आख़री बार उस समय चीख़ा जब सूरा-ए-हम्द नाज़िल हुआ।
फ़ातिहतुल किताब, किताब (कुरआन) को शुरू करने के अर्थ में है एवं हदीसों से मालूम होता है कि यह सूरह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में भी इसी नाम से जाना जाता था। इससे इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि क़ुरआन पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के ज़माना में बिखरा हुआ था और अबुबकर, उमर या उसमान के ज़माने में जमा किया गया। बल्कि वास्तविक्ता यह है कि कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही वर्तमान रूप में एकत्रित था और उसका आरम्भ सूरा-ए-हम्द से ही था।
विभिन्न सूत्रों से ज्ञात होता है कि कुरआन जिस प्रकार आज हमारे सम्मुख मौजूद है, वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही उनके आदेशानुसार एकत्रित किया जा चुका था। अली इब्ने इब्राहीम हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से उल्लेख किया है कि “पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से कहा कि क़ुरआन जो कि रेशमी कपड़ों के टुकड़ों, पेड़ की छालों एवं इसी प्रकार की अन्य चीज़ों पर बिखरा हुआ है उसे जमा करो।”इसके बाद कहते हैं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी जगह से उठे और उन सभी को एक ज़र्द रंग के कपड़े में जमा किया फिर उस पर मोहर लगाई।
इसके अलावा हदीसे सक़लैन[4] भी इसकी ओर इशारा करती है कि कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही एक किताब के रूप में एकत्रित किया जा चुका था। अगर प्रश्न किया जाये कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के बाद कुरआन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने क्योँ जमा किया?तो इसका जवाब यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने क़ुरआन जमा नही किया बल्कि उस जमा शुदा क़ुरआन के सूरहों व आयतों के नाज़िल होने के कारणों, वह जिन लोगों के बारे में नाज़िल हुआ उनके नामों और नाज़िल होने के समय आदि का उल्लेख किया था।
पहली आयत
शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो रहमान(दयालु) व रहीम(कृपालु) है।
संसार के हर समाज में यह प्रथा है कि किसी कार्य को शुरू करने से पहले एक महान एवं महत्वपूर्ण नाम का उच्चारण किया जाता है। अर्थात उस कार्य को किसी ऐसे अस्तित्व से जोड़ते हैं जिसकी कृपा दृष्टि के अन्तर्गत उसे पूरा किया जा सके। लेकिन क्या इससे श्रेष्ठ यह नही है कि किसी कार्य को सफ़लता पूर्वक करने के लिए तथा एक संगठन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उसे किसी ऐसे अस्तित्व से जोड़ा जाये जो अनश्वर हो, सम्पूर्ण सृष्टि में अनादिकाल से हो व सार्वकालिक हो। ऐसा अस्तित्व अल्लाह के अलावा और कोई नही है। अतः हमें हर काम को उसके नाम से शुरू करना चाहिए और उसी से सहायता माँगनी चाहिए। इसी लिए क़ुरआन की पहली आयत में कहा गया है कि अल्लाह के नाम से शुरू करता हूँ जो रहमान व रहीम है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने एक हदीस में कहा है कि “कुल्लु अमरिन जी बालिन लम युज़कर फ़ीहि इस्मुल्लाहि फ़हुवा अबतर” अर्थात वह कार्य जो अल्लाह के नाम के बिना शुरू किया जाता है वह अधूरा रह जाता है।
हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने कहा है कि हर काम को शुरू करने से पहले चाहे वह काम छोटा हो या बड़ा अल्लाह का नाम लिया जाये, ताकि वह काम सफलता पूर्वक पूरा हो सके।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि किसी भी काम को सफलता पूर्वक करने के लिए उसे किसी पूर्ण अस्तित्व से जोड़ना चाहिए। इसी वजह से अल्लाह ने अपने पैग़म्बर को आदेश दिया कि इस्लाम धर्म के प्रचार से पहले इस विशाल व कठिन ज़िम्मेदारी को अल्लाह के नाम से शुरू करो, ताकि अपने मक़सद में कामयाब हो सको। इसी लिए क़ुरआन ने पैग़म्बर (स.) को सबसे पहला आदेश यही दिया कि इक़रा बिस्मि रब्बिक अर्थात अपने रब के नाम से पढ़ो। इसी प्रकार हम देखते हैं कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम तूफ़ान जैसी विकट परिस्थिति में भी अपने साथियों को नाँव पर सवार होने, इसके चलने और रुकने के समय अल्लाह का नाम लेने को कहते हैं और इसी नाम के सहारे उन्होंने अपनी यात्रा को कुशलता पूर्वक पूरा किया।[5]
इसी तरह जब हज़रत सुलेमान ने सबा नामक राज्य की रानी बिलक़ीस को ख़त लिखा तो सबसे पहले उस ख़त में अल्लाह का नाम लिख था।[6]
इसी आधार पर, कुरआन के समस्त सूरोह को अल्लाह के नाम से शुरू किया गया है ताकि शुरू से आख़िर तक किसी अड़चन के बग़ैर अल्लाह के संदेश को पूरा किया जा सके। सिर्फ़ सूरा-ए-तौबा एक ऐसा सूरह है जिसके शुरू में बिस्मिल्लाह नही है और इसका कारण यह है कि इस सूरहे में ज़ालिमों व वादा तोड़ने वालों की निंदा करते हुए उनसे जंग का ऐलान किया गया है और जंग की घोषणा रहमान व रहीम जैसी विशेशताओं के साथ उपयुक्त नही है।
समस्त शिया आलिम इस बात पर एक मत हैं कि बिस्मिल्लाह सूरा-ए- हम्द ही नही बल्कि कुरआन के हर सूरेह का हिस्सा है। समस्त सूरोंह से पहले बिस्मिल्लाह का पाया जाना इस बात की ठोस दलील है कि यह प्रत्येक सूरेह का हिस्सा है। क्योँकि हमें ज्ञात है कि क़ुरआन में किसी भी चीज़ को बढ़ाया नही गया है। क़ुरआन के हर सूरेह से पहले बिस्मिल्लाह का चलन पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के ज़माने से ही है। इसके अलावा समस्त मुसलमानों की प्रथा यही रही है कि कुरआन पढ़ते समय हर सूरेह से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ते हैं। मुसलमानों का हर सूरेह से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना इसबात की ओर संकेत है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) भी हर सूरेह से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ते थे। अगर बिस्मिल्लाह को कुरआन के हर सूरेह का हिस्सा न माने तो जो चीज़ सूरेह का हिस्सा नही है उसका पैग़म्बर और मुसलमानों के द्वारा पढ़ा जाना व्यर्थ है। अतः सिद्ध हो जाता है कि सूरा-ए- तौबा को छोड़ कर, बिस्मिल्लाह कुरआन के हर सूरेह का हिस्सा है और इसका हर सूरेह का हिस्सा होना इतना स्पष्ट है कि मुविया ने अपने शासन काल में एक दिन नमाज़ पढ़ाते समय बिस्मिल्लाह नही कहा तो नमाज़ के बाद कुछ मुहाजिर व अंसार ने उनसे पूछा कि तुमने बिस्मिल्लाह को चुरा लिया है या भूल गये हो?
अल्लाह का जो भी अन्य नाम क़ुरआन या दूसरी इस्लामी किताबों में वर्णित हुए है वह उसकी किसी मुख्य विशेषता पर प्रकाश डालते हैं। परन्तु अल्लाह ऐसा नाम है जो अपने अन्दर उसकी समस्त विशेषताओं को इकठ्ठा किये हुए है। इसी कारण अल्लाह के अन्य नाम उसकी सिफ़तों के लिए प्रयोग किये जाते हैं। जैसे ग़फ़ूर (क्षमा करने वाला) रहीम (अत्यन्त दया करने वाला) यह दोनों नाम अल्लाह की क्षमा करने की विशेषता को प्रदर्शित करते हैं। फ़ इनल्लाह ग़फ़ूरुर रहीम[7] अर्थात निःसंदेह अल्लाह क्षमा करने वाला वह अत्यन्त दयावान है।
इसी तरह उसका समीअ (बहुत अधिक सुनने वाला) नाम उसकी सुनने की विशेषता को प्रकट करता है। इसी प्रकार उसका अलीम नाम उसके ज्ञान की ओर इशारा करता है कि वह हर चीज़ का जानने वाला है। फ़ इन्नल्लाहा समीउन अलीम।[8] निःसंदेह अल्लाह अत्यधिक सुनने वाला व जानने वाला है।
एक आयत में अल्लाह के विभिन्न नाम उसकी विशेषताओं के रूप में प्रयोग हुए हैं और वह आयत यह है। हुवा अल्लज़ी ला इलाहा इल्ला हुवा अलमलकु अलक़ुद्दूसु अस्सलामु अलमुमिनु अलमुहैमिनु अलअज़ीज़ु अलजब्बारु अलमुतकब्बिरु।[9] अर्थात अल्लाह वह है जिसके अतिरिक्त कोई अन्य माबूद नही है, वह बादशाह, पाकीज़ा सिफ़ात, बे ऐब, देख भाल करने वाला, इज़्ज़तदार, ज़बरदस्त व किबरियाई का मालिक है।
अल्लाह, नाम के सर्वगुण सम्पन्न होने का दूसरा कारण यह हो सकता है कि इस नाम के द्वारा अर्थात ला इलाहा इल्ला अल्लाह कह कर ही ईमान को प्रकट किया जा सकता है।
क़ुरआन के मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) के मध्य यह तथ्य मशहूर है कि अल्लाह की रहमान नामक विशेषता उसके द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि पर की जाने वाली कृपाओं की ओर संकेत करती है। जो दोस्त, दुशमन, मोमिन, काफ़िर अच्छे व बुरे सभी प्रकार के लोगों पर समान रूप से होती है। जैसे वर्षा, अल्लाह की रहमानी विशषेषता के अन्तर्गत आती है और इससे प्रत्येक प्राणी लाभान्वित होता है।
लेकिन अल्लाह की रहीम नामक विशेषता उसके द्वारा की जानी वाली उस विशेष कृपा व दया की ओर इशारा करती है, जो केवल विशेष बंदों को ही प्राप्त होती है। इसकी दलील यह है कि क़ुरआन में जहाँ जहाँ रहमान शब्द प्रयोग हुआ है वह अपने अन्दजर सभी प्राणियों को सम्मिलित किये हुए है। परन्तु जहाँ जहाँ रहीम शब्द आया है वह विशेष रूप में प्रयोग हुआ है और इसकी दलील क़ुरआन की वह आयत है जिसमें अल्लाह कह रहा है कि व काना बिल मोमिनीना रहीमा[10] अर्थात अल्लाह मोमिनों के प्रति रहीम है।
इसके अलावा हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है कि अल्लाह सम्पूर्ण सृष्टि का माबूद (पूजनीय) व समस्त प्राणियों पर कृपा करने वाला तथा मोमिनों पर अत्याधिक दयालु है।
अगर हम इस प्रश्न के संबन्ध में इस बात पर ध्यान दें कि “प्रत्येक कार्य के आरम्भ में उस विशेषता की इच्छा होती है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण संसार पर विद्यमान हो और जो अपने अन्दर समस्त सृष्टि को छुपाये हुए हो और जो संकट के समय कल्याणकारी बन कर संकट से बचा सके।” तो यह प्रश्नसरलता पूर्वक हल हो सकता है। अब हम उपरोक्त वर्णित समस्त तथ्यों को कुरआन में देखते हैं। कुरआन में वर्णन हुआ है कि रहमती वसिअत कुल्ला शैइन।[11] अर्थात मेरी रहमत हर चीज़ को अपने अन्दर समेटे हुए है।
दूसरी ओर हम देखते हैं कि पैग़म्बरों ने संकट से निकलने व दुश्मनों से सुरक्षित रहने के लिए अल्लाह की रहमत का सहारा लिया। हूद व उनके अनुयाईयों के बारे में मिलता है कि फ़ अनजैनाहु व अल्लज़ीना मअहु बिरहमतिन मिन्ना।[12] अर्थात हमने हूद व उनके साथियों को अपनी रहमत के के द्वारा छुटकारा दिलाया।
इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि अल्लाह के समस्त कार्य को आधार उसकी रहमत है। उसका क्रोध तो कभी कभी ही प्रकट होता है । जैसे कि हम दुआओं की किताबों में पढ़ते हैं कि या मन सबक़त रहमतुहु ग़ज़बहु अर्थात ऐ अल्लाह तेरी रहमत तेरे क्रोध पर भारी है।
इंसान को चाहिए कि अपनी ज़िनंदगी का आधार रहम व मुहब्बत को बनाये और अपनेक्रोध को उचित समय के लिए सुरक्षित रखे।
दूसरी आयत
अनुवाद –हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सम्पूर्ण जगत का पालनहार है।
बिस्मिल्लाह के बाद, बंदों का प्रथम कर्तव्य यह है कि वह संसार की रचना एवं अल्लाह की उन नेअमतों के प्रति चिन्तन करे, जो उसने संसार के विभ7िन्न प्राणियों को प्रदान की हैं। यही चीज़े अल्लाह को पहचानने में हमारा मार्गदर्शन करती हैं और इनके द्वारा ही हम अल्लाह को उसके वास्तविक रूप में पहचान ने का थोड़ा बहुत प्रयत्न कर पाते हैं। यह प्रयत्न ही हमारी इबादत की प्रवृत्ति को जागृत करता है।
हम प्रवृत्ति के जागृत होने का उल्लेख इस लिए कर रहे हैं क्योँकि इस संसार का प्रत्येक इंसान जब भी कोई नेअमत को प्राप्त करता है तो उसके अन्दर उस नेअमत के प्रदान करने वाले को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और वह प्रवृत्ति स्वरूप उसका शुक्रिया अदा करना चाहता है। इसी लिए इल्मे कलाम (मतज्ञान) के विद्वानों ने इस ज्ञान के शुरू में ही इस बात का वर्णन किया है कि नेअमत देने वाले का शुक्र अदा करना अति आवश्यक है और यह एक स्वभाविक प्रवृत्ति है और अल्लाह को पहचानने का साधन भी है।
“अल्लाह को पहचान ने में उसकी प्रदान की हुई नेअमतें हमारे लिए मार्ग दर्शक सिद्ध होती हैं” यह कथन इस आधार पर कहा गया है क्योँकि स्रोत को जानने का सबसे सरल तरीक़ा यह है कि इंसान प्रकृति, सृष्टि व उत्पत्ति के भेदों को समझे और इन सब के इंसान से सम्बन्ध को जाने। तब समझ में आयेगा कि नेअमतें हमारा मार्ग दर्शन किस प्रकार करती हैं।
इन दोनों दलीलों के द्वारा यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस सूरेह का प्रारम्भ इस आयत से क्योँ हुआ है। (हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे जगत का पालनहार है।)
हम्द शब्द का अर्थ, किसी कार्य या नेक स्वेच्छित विशेषता की प्रशंसा करना है।
1. प्रत्येक इंसान अच्छाइयों व भलाईयों का स्रोत है। पैग़म्बर व अल्लाह के द्वारा भेजे गये हादी (मार्ग दर्शक) जो लोगों के दिलों को कल्याण व हिदायत से प्रकाशित करते हैं, और प्रत्येक दानी व्यक्ति और वैद्य जो जड़ी बूटियों के द्वारा लोगों का इलाज करते हैं, इन समस्त लोगों की प्रशंसा वास्तव में अल्लाह के पवित्र अस्तित्व के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। इसकी मिसाल ऐसी ही है जैसे सूरज प्रकाश देता है, बादल वर्षा करता है तथा ज़मीन फल फूल सब्ज़ी व अनाज प्रदान करती है। परन्तु वास्तव में यह सभी चीज़ें अल्लाह की ओर से ही प्रदान होती हैं।
2. यह बात ध्यान देने योग्य है कि हम्द किसी कार्य के प्रारम्भ में ही नही होती बल्कि उसके अंत में भी होती है। क्योँकि कुरआन हमें यह शिक्षा देता है कि अल्लाह की प्रशंसा हमेशा करते रहो। स्वर्ग वासियों के समबन्ध में वर्णन होता है कि “स्वर्ग में उनका कथन यह होगा कि अल्लाह पाक एवं पवित्र है। वह आपस में सलाम के द्वारा मुलाक़ात करेंगे और उनका अन्तिम कथन यह होगा कि समस्त प्रशंसायें अल्लाह के लिए है जो पूरे जगत का पालनहार है।”[13]
3. रब्ब शब्द का अर्थ मालिक है। यह शब्द विशेषकर तरबियत, प्रशिक्षण व पालनहारिता के अर्थ में प्रयोग होता है।
4. आलमीन यह शब्द आलम शब्द का बहुवचन है। आलम शब्द का अर्थ संसार व उसमें विद्यमान समस्त चीज़े हैं। जब यह शब्द अपने बहुवचन में प्रयोग होता है तो इसका अर्थ व्यापक हो जाता है और इसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व उसमें विद्यमान समस्त वस्तुएं सम्मिलित हो जातीं हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि सूरा-ए- फ़ातिहा में रब्बिल आलमीन अल्लाह की सम्पूर्ण सृष्टि की ओर संकेत है जिसके अन्तर्गत सजीव व निर्जीव सभी वस्तुएं आती हैं।
तीसरी आयत
अनुवाद- ऐसा अल्लाह जो रहमान व रहीम है।
हमने रहमान एवं रहीम का अन्तर बिस्मिल्लाह की तफ़सीर के अन्तर्गत स्पष्ट कर दिया है। यहाँ केवल यह बताना उचित रहेगा कि अल्लाह की इन दोनों विशेषतओं को हर रोज़ की नमाज़ मे कम से कम तीस बार पढ़ा जाता है। हर नमाज़ की पहली व दूसरी रकत में छः बार अर्रहमान व अर्रहीम पढ़ा जाता है। इस प्रकार हम हर रोज़ पाँच वक्त की नमाज़ों में अल्लाह को रहमान व रहीम की विशेषताओं के साथ तीस बार पुकारते हैं। यह प्रत्येक इंसान के लिए एक शिक्षा है कि वह अपने जीवन में सबसे पहले स्वयं को इस नैतिक गुण से जोड़े। इसके अलावा यह विशेषता इस ओर भी इशारा करती है कि अगर हम स्वयं को अल्लाह का बंदा मानते हैं तो हमेंबी अपने बंदों व सेवकों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो व्यवहार अल्लाह अपने बंदों के साथ करता है।
इसके अलावा जिस बात का यहाँ वर्णन किया जा सकता है वह यह है कि रहमान व रहीम, रब्बिल आलमीन के बाद प्रयोग हुआ है जो कि इस बात की ओर संकेत करता है कि अल्लाह सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने बंदों के साथ मुहब्बत व सहानुभूती रखता है।
चौथी आयत
अनुवाद- (वह अल्लाह) जो क़ियामत के दिन का मालिक है।
इस आयत में अल्लाह के प्रभुत्व की ओर संकेत हुआ है और बताया गया है कि उसका प्रभुत्व क़ियामत के दिन उस समय स्पष्ट होगा जब समस्त प्राणी अपने कार्यों के हिसाब किताब के लिए उसकी अदालत में उपस्थित होंगे व अपने आपको उसके सम्मुख पायेंगे और अपने संसारिक जीवन के समस्त कर्मों यहाँ तक कि अपने चिंतन को भी अपने सामने देखेंगे। सूईं की नोक के बराबर भी न कोई चीज़ गुम होगी और न ही भुलाई जायेगी। इंसान को अपनी समस्त ज़िम्मेदारियों को अपने काँधों पर उठाना पड़ेगा। क्योँकि इंसान ही रीती को बनाने वाला एवं लक्ष्यों व उद्देश्यों पर खरा उतरने वाला है। अतः इंसान को चाहिए कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों को समझे व उन्हें पूरा करते हुए अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करे।
इसमें कोई संदेह नही है कि इस संसार में अल्लाह का प्रभुत्व ही वास्तविक है। उसका प्रभुत्ता ऐसी नही है जैसे अपनी वस्तुओं पर हमारा होता है।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अल्लाह का प्रभुत्व ख़ालक़ियत व रबूबियत (उत्पत्ति व पालनहारिता) के नतीजे में है। वह अस्तित्व जिसने इस प्रकृति की रचना की और जो प्रत्येक पल समस्त जीव जन्तुओं पर कृपा करता है वास्तव में वही समस्त चीज़ों का मालिक व प्रभु है।
यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या अल्लाह इस सम्पूर्ण सृष्टि का मालिक नही है, जो हम उसे क़ियामत के दिन का मालिक कहते है?
इस प्रश्न के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि इसमें कोई संदेह नही है कि अल्लाह पूर्ण सृष्टि का मालिक है। लेकिन उसका मालिक होना पूर्ण रूप से उसी दिन स्पष्ट होगा। क्योँकि उस दिन सभी भौतिक पर्दे उठा दिये जायेंगे व सामयिक मालकियत व प्रभुत्व समाप्त कर दिया जायेगा। उस दिन किसी के पास कोई वस्तु नही होगी। यहाँ तक कि अगर किसी की शिफ़ाअत भी की जायेगी तो वह भी अल्लाह के आदेश से होगी
क़ियामत का यक़ीन इंसान को नियन्त्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इंसान को बहुत से अनैतिक व धर्म विरोधी कार्यों से रोकता है। नमाज़ द्वारा इंसान का बुराईयों से रुकने का एक कारण यह भी है कि नमाज़ इंसान को उसकी वास्तविक्ता व अन्य चीज़ों से अवगत कराती है। उसे अल्लाह के उस दरबार की याद दिलाती है जहाँ अदालत व इंसाफ़ का राज होगा और जहाँ हर चीज़ आईने की तरह साफ़ नज़र आयेंगी।
एक हदीस में हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के बारे में मिलता है कि जब आप सूरा-ए-हम्द पढ़ते हुए मालिकि यौमिद्दीन पर पहुँचते थे तो इस आयत को इतनी बार दोहराते थे कि ऐसा लगने लगता था कि आप की रूह बदन से निकल जायेगी।
क़ुरआन में यौमद्दीन जहाँ भी प्रयोग हुआ है सब जगह क़ियामत के अर्थ में है। अगर यह प्रश्न किया जाये कि क़ियामत को दीन का दिन क्योँ कहा जाता है, तो इसका जवाब यह दिया जा सकता है कि लुग़त (शब्द कोष) में दीन का अर्थ जज़ा व प्रतिफल है। चूँकि क़ियामत के दिन हर प्राणी को उसके कार्यों का प्रतिफल मिलेगा शायद इसी लिए क़ियामत को यौमिद्दीन अर्थात दीन का दिन कहा गया है।
पाँचवीं आयत
अनुवाद- हम केवल तेरी ही इबादत करते हैं और केवल तुझ ही से मदद चाहते हैं।
यहाँ से बंदा अल्लाह से सम्बोधित होता है। पहले अल्लाह के सामने अपनी बंदगी को बयान करता है बादमें उससे सहायता की गुहार करता है। कहता है कि हम केवल तेरी ही इबादत करते हैं और केवल तुझ ही से सहायता चाहते हैं।
वास्तविक्ता यह है कि इससे पहली आयतों में तौहीदे ज़ात व तौहीदे सिफ़ात का वर्णन हुआ है और इस आयतमें तौहीदे इबादत व तौहीदे अफ़आल को बयान किया गया है।
तौहीदे इबादत का अर्थ यह है कि अल्लाह के अलावा कोई भी अस्तित्व इबादत योग्य नही है। अर्थात किसी अन्य के समक्ष सिर नही झुकाया जा सकता। अतः इंसान को चाहिए कि वह अल्लाह के अलावा अन्य किसी चीज़ को स्वीकार करने व उसक बंदा बनने से बचे।
तौहीदे अफ़आल अर्थात इस संसार में वास्तविक कारक अल्लाह है। इस कथन का मतलब यह नही है कि हम कारणो के पीछे न जायें बल्कि अर्थ यह है कि हमें यह विश्वास होना चाहिए कि यहाँ प्रत्येक कारण व प्रभाव अल्लाह के आदेशानुसार ही है। इस प्रकार का चिंतन इंसान को संसार समस्त वस्तुओं से दूर करके अल्लाह से जोड़ता है।
छठी आयत
अनुवाद - हमारा सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन कर
अल्लाह को उसके वास्तविक रूप में स्वीकार करने के बाद उसकी बंदगी करते हुए उसके द्वारा बनाये गये क़ानूनों के अनुरूप उससे सहायता की गुहार करने के बाद बंदे की पहली माँग यह है कि अल्लाह उसका सत्यता, पवित्रता, नेकी इंसाफ़ व न्याय, ईमान व अमल के सीधे रास्ते का मार्ग दर्शन करे। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि हम अल्लाह से सीधे रास्ते के लिए मार्ग दर्शन करने का निवेदन क्योँ करे?क्या हम भटके हुए हैं या हम किसी ग़लत रास्ते पर हैं? फिर यह दुआ पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन ने भी की है जो कि सिद्धी प्राप्त इंसान थे। तो इसका अर्थ क्या है?
इस प्रश्न के उत्तर में हम कह सकते हैं कि इंसान को हिदायत के रास्ते में प्रति क्षण अपने डग मगाने एवं भटकने व गुमराह होने का डर रहता है। अतः इसी कारण हमें चाहिए कि स्वयं को अल्लाह के हवाले कर दें और उससे प्रार्थना करें कि वह सीधे रास्ते पर अग्रसर रहने की तौफ़ीक़ दे एवं हमारा मार्ग दर्शन करे। इसके अलावा हिदायत उसी रास्ते को तै करने के लिए है जो इंसान को धीरे धीरे सिद्धता की ओर ले जाता है और वह अपने समस्त नुक़सानों को छोड़ता चला जाता है और अन्ततः सिद्धी प्राप्त कर लेता है। अतः अगर पैगम्बर या इमाम अल्लाह से सीधे रास्ते की हिदायत की दुआ करें तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नही है। क्योँकि अल्लाह ही सिद्धी का वास्तविक रूप है तथा सम्पूर्ण संसार सिद्धी के मार्ग पर अग्रसर है।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम इस आयत की तफ़्सीर करते हुए फ़रमाते हैं कि “ऐ अल्लाह हमें उस रास्ते पर स्थिर व अडिग रख जिस पर तेरी मुहब्बत व कृपा दृष्टि हो तथा जो सवर्ग से जाकर मिलता हो औरसमस्त भौतिक चिंताओं व गुमराही से दूर हो। ”
सिराते मुस्तक़ीम अल्लाह की इबादत और दीने हक़ पर रहते हुए अल्लाह के क़ानूनों का पालन है। क्योँकि सूरा-ए- अनाम की आयत न. 161 में वर्णन हुआ है कि कहो, कि अल्लाह ने हमें सिराते मुस्तक़ीम की हिदायत की है, उस दीन की जो इब्राहीम का दीन था, और अल्लाह के साथ किसी अन्य को हरगिज़ शरीक न करो।
सातवीँ आयत
अनुवाद--- मुझे उन लोगों के रास्ते की हिदायत कर जिन पर तूने अपनी नेअमतें नाज़िल कीं (हिदायत की नेअमत, तौफ़ीक़ की नेअमत, सत्य ,लोगों के मार्गदर्शन की नोअमत, ज्ञान,कर्म जिहाद व शहादत की नेअमत) उन लोगों के रास्ते पर न चला जो अपने कुकर्मों के कारण तेरे परकोप का निशाना बने और नही उन लोगों के रास्ते पर जो सत्य का मार्ग छोड़ कर गुमराही व असत्य के मार्ग पर चल पड़े।
वास्तविक्ता यह है कि अल्लाह हमें निर्देश दे रहा है कि हमें उस रास्ते को चुनना चाहिए जो पैग़म्बरों, नेक लोगों व उन लोगों का है जिन पर नेअमतें नाज़िल हुईं। साथ ही साथ हमें अवगत भी करा रहा कि गुमराही के दो रास्ते हैं एक उन लोगों का जो अल्लाह के क्रोध का निसाना बने और दूसरा उनलोगों का जो हक़ के मार्ग से भटक गये।
1- अल्लज़ीना अनअमता अलैहिम
वह लोग जिन पर तूने नेअमते नाज़िल कीं।
प्रश्न पैदा होता है कि वह लोग कौन हैं जिन पर अल्लाह ने नेअमतें नाज़िल कीं?
सूरह-ए निसा की आयत न. 69 में उन लोगों का परिचय कराते हुए वर्णन हुआ है कि और जिन्होंने पैग़म्बरो को माना( उनके आदेशों पर चले) तो ऐसे लोगों उन बंदो के साथ होंगे जिन्हें अल्लाह ने अपनी नेअमतों प्रदान की हैं। यानि पैग़म्बर, सच्चे लोग, शहीद व नेक लोग और यह लोग कितने अच्छे दोस्त हैं।
इस आधार पर हम सूरा-ए-हम्द में अल्लाह से यह चाहते हैं कि इन चार गिरोहों के मार्ग पर हमेशा अडिग रहें और इस रास्ते पर चलते हुए अपने उत्तरदायित्व को निभायें व कर्तव्यों को पूरा करें।
2 अलमग़ज़ूबि अलैहिम व अज़्ज़ाल्लीन
जिनपर अल्लाह क्रोधित हुआ तथा जो गुमराह हुए।
यह लोग कौन है ?
कुरआन मेंप्रयोग होने वाले इन दो शब्दों से अलग अलग अभिप्रायः लिया गदया है। ज़ाल्लीन से अभिप्रायः साधरण गुमराह लोग और मग़ज़ूब से अभिप्रायः कपटी, हटधर्मी व मुनाफ़िक जैसे गुमराह लोग हैं।
[1] अल्लाह की पहचान
[2] तफ़्सीरे नमूना जिल्द न.11 में सूरह-ए हज की आयत न. 87 के अन्तर्गत देखें
[3] तफ़्सीर अल मीज़ान अल्लामा तबातबाई जिल्द न. 1 पेज न. 37 पर देखें।( हदीस बड़ी होने की वजह से पूरी नही लिखी गई है।)
[4] पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने कहा कि मैं तुम लोगों केबीच दोमहत्वपूर्ण चीज़ें छोड़ करजा रहा हूँ एकअल्लाह कीकिताब तथा दूसरे मेरे अहले बैत । इस हदीस को शिया व सुन्नी दोनों सम्प्रदाय समान रूप से स्वीकार करते हैं।
[5] सूरा-ए-हूद आयत न. 41 व 48
[6] सूरा-ए-नहल आयत न.30
[7] सूरा-ए-बक़रह आयत न. 266
[8] सूरा-ए-बक़रह आयत न.227
[9] सूरा-ए-हश्र आयत न. 23
[10] सूरह-ए-अहज़ाब आयत न.43
[11] सूरा-ए-आराफ़ आयत न.156
[12] सूरा-ए-आराफ़ आयत न.72
[13] सूरह-ए-यूनुस आयत न.10