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क़ुरआन और इल्म के रिश्ते को समझने के लिए इतना काफ़ी है कि क़ुरआन आलमें इंसानियत की रहबरी के लिए आया है और आलमे इंसानियत का कमाल व जोहर इल्मो दानिश ही से खुलता है। क़ुरआन ने रसूले अकरम की बेसत की ग़रज़ ब्यान करते हुये यह वाज़ेह किया है कि रसूले को तालीम के लिए भेजा गया है। " يعلمهم الكتاب" और किताब की तारीफ़ में यह अलफ़ाज़ बयान किये हैं कि "لا رطب ولا يابس الا في كتاب مبين " कोई ख़ुश्क व तर ऐसा नहीं है जो कि इस किताबे मुबीन में मोजूद न हो। जिसका खुला हुआ मतलब यह है कि रसूल आलमे इंसानियत को हर ख़शको तर की तालीम देने आया था।
उसका अंदाज़ा इस बात से भी किया सकता है कि अल्लाह ने अपनी किताब का अग़ाज़ लफ़्ज़ इक़रा से किया और अंजाम "علم الانسان ما لم يعلم" पर किया है। यानी तनज़ीले क़ुरआन का मक़सद क़राअत है और अल्लाह ने हर इंसान को इस बात की तालीम दी है, जो उसे मालूम नहीं थी। ग़ौर करने की बात है कि जो रसूल इतनी जामेअ किताब की तिलावत व तालीम के लिए आया हो, वह किताब से बे ख़बर या तालीम से बेगाना हो सकता है ? इस्लामी रिवायात का बहुत बड़ा ज़ुल्म है कि उन्हों ने तंज़ील क़ुरआन की रिवायात में सरवरे दो आलम की जिहालत भी शामिल करदी है, हांलांकि लफ़ज़े इक़रा का वजुद ही इस अमर के इस्बात के लिय काफ़ी था कि रसूल क़राअत से बाख़बर थे, वरना हुक्मे क़राअत लग़्व हो जाता। क्योंकि जिबरील बा हैसियते रसूल के वही लेकर आय थे, स्कूल के किसी बच्चे को तालीम देने नहीं आये थे, वाज़ेह लफ़ज़ों में यूँ कहा जाये कि मुदर्रिस बच्चे से भी कहता है कि पढ़ो जबकि वह पढ़ने से ना वाक़िफ़ होता है और मलक रसूल से भी कह रहा है कि पढ़ो जबकि वह तालीमे किताब के लिए रसूल बनाया जा रहा है। ज़ाहिर है कि अगर बच्चे और रसूल में फ़र्क़ होगा तो दोनों जगह क़राअत का तसव्वुर भी अलग अलग होगा और अगर रसूल तिफ़ले मकतब और ग़ारे हिरा कोई मदरसा होगा तो जिब्राईल यक़ीनन अलिफ़ बे की तालीम देने आये होंगे।
कहा जाता है कि क़ुराने मजीद, ने ख़ुद ही रसूल को जाहिले क़राअत व किताबत साबित किया है, तो हम इल्म व दानिश पर कहाँ से ईमान ले आयें। इरशाद होता है "و ما كنت تتلوا من قبله من كتاب ولا تحظه بيمينك اذا لارتاب المبطلون" आप इस क़ुरआन से पहले न कोई किताब पढ़ते थे और न अपने हाथ से कुछ लिखते थे, वरना अहले बातिल शुबहे में पड़ जाते और क़ुरआन को किसी मदरसे की तालीम की नतीज़ा क़रार दे देते।
मेरी समझ में नहीं आता कि उलमा-ए-इस्लाम ने आयत के किस लफ़ज़ से रसूल की जिहालत का अंदाज़ा किया है। जबकि क़ुरआन ने साफ़ लफ़जों में पढ़ने और लिखने की नफ़ी की है। इन दोनो के जानने की नफ़ी नही की है। बल्कि आगे चलकर उसी से मिली हुई दूसरी आयत में रसूल के इल्म की वज़ाहत भी कर दी है"بل هو آيات في صدور الذين اوتوا العلم"बल्कि यह क़ुरआन चंद आयाते बय्येनात का नाम है, जिन्हें उन साहिबाने इल्म के सीनों में रख दिया गया है, जिन्हें इल्म दिया गया है। क्या आयात से साफ़ वाज़ेह नहीं होता कि क़ुरआन ने पहले पढ़ने लिखने की नफ़ी की और उसके बाद इल्म का इस्बात कर दिया। यानी इल्मे क़ुरआन पहले भी तम्हारे सीने में था लेकिन हमने तुम्हें लिखने पढ़ने से रोक रखा था ताकि अहले बातिल शुबहे में न पड जाएं और उन्हें सादा लोह अवाम के ज़हनों में शुकूक पैदा करने का मौक़ा न मिले।
क़ियामत तो यह है कि मुसलमानों का एक तबक़ा तंज़ीले क़ुरआन के बाद भी रसूल को क़रात व किताबत से जाहिल ही तसुव्वुर करता है और इसी बुनयाद पर दरबारे रिसालत में कातिबाने वही और कातेबाने ख़ुतूत व रसाइल की ज़रुरत महसूस करता है। हालांकि तारीख़ में सुल्हे हुदैबिया का वाक़िया साबित है कि रसुले अकरम आलिमे क़रात व किताबत थे, वरना अगर आ़लिमें क़राअत न होते तो रसूल अल्लाह के बजाये कोई दूसरा लफ़ज़ काट देते और अगर आलिमे किताबत न होते तो इब्ने अबदुल्लाह के बजाये कुछ और लिख देते।
मेरा ज़ाती ख़्याल तो यह है कि रसूल की जिहालत का अफ़साना उस हक़ीक़त पर पर्दा डालने के लिये गढ़ा गया है, कि हुज़ूर ने आख़री वक़्त में क़लम व दवात का मुतालिबा किया था, ताकि उम्मत की निजात के लिय नविश्ता लिख जाएं और उम्मत के बाज़ जाने पहचाने लोगों ने आप के हुक्म को हिज़यान क़रार देकर क़ौम को क़लम व दवात देने से रोक दिया था। यानी मक़सद यह है कि रसूल को जाहिले किताबत साबित कर लिया तो किताबत के लिए काग़ज़ व क़लम मांगने को हिज़यान आसानी के साथ कहा जा सकेगा। वरना उम्मते इस्लामिया रसूल पर तोहमत हिज़ायान रखने वालों के बारे में भी कुछ फ़ैसला कर सकती है।
बहरहाल इल्मी दुनिया की आफ़ाक़ी वुसअतों पर क़ुराने मजीद के एहसानात का अंदाज़ा इस बात से भी हो सकता है कि आसमानी किताबों की आख़री किताब यानी इंजीले मुकद्दस अपनी क़ौम को बनी इसराईल की भेड़ों से ताबीर करती है और ज़ाहिर है कि जिस क़ौम की ज़हनी सतह भेड़ों की सतहे ज़हन जैसी होगी उसे इल्म व मआ़रिफ़ के वह ख़ज़ाने नहीं दिये जा सकते जो يا ايها الناس की मिसदाक़ क़ौम को दिये जा सकते हैं। और यही वजह है कि आज से दो सदी क़ब्ल तक मसीह के परसतारों और कलीसा के ठोकेदारों ने जदीद तहक़ीक़ात की शदीद मुख़लेफ़त की है। और हरकत ज़मीन, क़ुव्वते जज़्ब जैसी हक़ीक़तों के इंकिशाफ़ करने वालों को सख़्त सज़ाओं का अहल क़रार दिया है। जबकि क़ुराने मजीद ने आज से तक़रीबन चौदह सौ बरस क़ब्ल उस वक़्त के ज़हन की बर्दाश्त का लिहाज़ करते हुए दो लफ़ज़ों में दुनिया के हर बड़े इल्म की तरफ़ इशारा कर दिया था और आने वाली तरक़्क़ी याफ़ता इंसानियत के लिय समन्दर को कूज़े में बंद कर के पेश कर दिया था। अब तरक़्क़ी याफ़ता इंसान क़ुरआन की इन आयतों को पढ़े और सर धुनता रहे कि अगर यह किताब आसमानी किताब न होती, अगर उसके पैग़ामात अबदी पैग़ामात न होते तो चौदह सदी क़ब्ल के जाहिल अरब मुआशरे के सामने इन हक़ाइक़ व मआ़रिफ़ को पेश करने की ज़रूरत क्या थी। क़ुरआन ने मुख़तसर अलफ़ाज़ में जिन उलूम की तरफ़ इशारा किया है उनका इजमाली ख़का यह है:
1. ईल्मे ज़र्रा: “لَا يَعْزُبُ عَنْهُ مِثْقَالُ ذَرَّةٍ فِي السَّمَاوَاتِ وَلَا فِي الْأَرْضِ وَلَا أَصْغَرُ مِن ذَلِكَ وَلَا أَكْبَرُ إِلَّا فِي كِتَابٍ مُّبِينٍ” (सबा 4)
(ज़मीन व आसमान की ज़र्रा बराबर चीज़ या उससे कम व ज़्यादा भी अल्लाह की नज़रों से बईद नही है, उसने सबको किताबे मुबीन में जमा कर दिया है।)
आयत में ज़र्रे के ज़िक्र के साथ सिक़्ल का ज़िक्र और फिर ज़र्रे में ज़मीन व आसमान की ऊमूमीयत इस बात की दलील है कि ज़र्रे का वुजूद सिर्फ़ ज़मीन पर नही है बल्कि आसमानों पर भी है और यह बह चीज़ है जहाँ तक अभी तक साईंस की रसाई नही हुई। इससे अलावा ज़र्रे के साथ असग़र व अकबर की ज़िक्र इस बात का सुबूत बल्कि ईल्मे ख़ुदा में महफ़ूज़ भी है। ज़ाहिर है कि ज़र्रे से छोटी चीज़ ज़र्रा नही है इस लिये कि उस पर बहरहाल ज़र्रे का इतलाक़ होगा बल्कि ज़र्रे से छोटी चीज़ वही कहरबाई मौजें हैं जिन्हे आज की दुनिया में एलेक्टरोन व प्रोटोन वग़ैरा से ताबीर किया जाता है बल्कि मुमकिन है कि क़ुरआने करीम की नज़र उससे ज़्यादा लतीफ़ माद्दे की तरफ़ हो जिसे उसने असग़र कह कर छोड़ दिया है और लफ़्ज़े मौज का इस्तेमाल नही किया है।
1- ईल्मे तबीयत: “أَوَلَمْ يَرَ الَّذِينَ كَفَرُوا أَنَّ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ كَانَتَا رَتْقًا فَفَتَقْنَاهُمَا”(अंबीया 31)
(क्या कुफ़्फ़ार ने इस बात पर ग़ौर नही किया है कि समावात व अर्ज़ आपस में जुड़े हुए थे हमने उन दोनो को अलग किया है।)
समावात व अर्ज़ के जुड़े होने और अलग होने का जो मफ़हूम भी हो, आयत ने ऊलामा ए तबीयत के ज़हनों को इस अम्र की तरफ़ ज़रूर मुतवज्जेह कर दिया है कि हर आसमान अपनी ज़मीन के साथ या हर आसमान व ज़मीन दूसरे आसमान व ज़मीनों के साथ माद्दे और तबीयत में इत्तेहाद रखते हैं। फ़ज़ा के बदल जाने से आसार में फ़र्क़ हो सकता है लेकिन असली माद्दे में कोई फ़र्क़ नही है। इसलिये कि जब दो चीज़ों को एक ही चीज़ से अलग किया जाता है तो दोनो के तबीयी माद्दे में इत्तेहाद हुआ करता है। आप एक लोटे पानी को दो गिलासों में तक़सीम कर दीजीए एक को आग के पास रख दीजीए और एक को बर्फ़ के पास। ज़ाहिर है कि जगह बदल जाने से दोनो के आसार में फ़र्क़ हो जायेगा, एक गिलास का पानी ठंडा होगा और एक का गर्म। लेकिन असली तबीयत के ऐतबार से दोनो पानी रहेंगें और पानी के तबीयी और ज़ाती ऐतबार से दोनो में इत्तेहाद रहेगा।
2- जुग़राफ़िया: “وَأَرْسَلْنَا الرِّيَاحَ لَوَاقِحَ فَأَنزَلْنَا مِنَ السَّمَاءِ مَاءً فَأَسْقَيْنَاكُمُوهُ وَمَا أَنتُمْ لَهُ بِخَازِنِينَ”(हिज्र 23)
(हमने हवाओं को ज़रीया ए तुख़्म रेज़ी बनाकर आज़ाद कर दिया और उसके बाद पानी बरसा दिया, फिर तुनको उस पानी से सैराब कर दिया, हालाँकि तुम्हारे पास उसका ख़ज़ाना नही था।)
दौरे क़दीम के अहले जुग़राफ़िया इस बात से क़तई तौर पर नावाक़िफ़ थे कि हवाओं के मसरफ़ क्या क्या हैं। और उनका असर कहाँ क्या होता है। लेकिन क़ुरआने मजीद ने अरब को उसके ज़ौक़ के मुताबिक़ इस अम्र की तरफ़ मुतवज्जेह किया कि इन हवाओं से तुम्हारे नरख़रे का माद्दा, माद्दा ए ख़ुर्मे तक जा पहुच जाता है और फिर बारिश के असर से पैदावार शुरू हो जाती है और दौरे हाज़िर को यह सबक़ दिया कि हवा बादलों की दोनो बर्क़ी ताक़तों को जमा करती है और उसके बाद पानी उसे ज़मीन तक पहुचा देता है।
3- ईल्मे नबात: “وَهُوَ الَّذِيَ أَنزَلَ مِنَ السَّمَاء مَاء فَأَخْرَجْنَا بِهِ نَبَاتَ كُلِّ شَيْءٍ”(अनआम 100)
(वही ख़ुदा वह है जिसने आसमान से पानी नाज़िल किया है और उसके बाद हमने उस पानी से हर नबात को ज़मीन से निकाल दिया है।)
आयत का ख़ुला हुआ इशारा है कि नबात की पैदावार में पानी का बहुत बड़ा दख़ल होता है और पानी के आसमान से नाज़िल होने की भी पैदावार में बड़ी अहमीयत है इसलिये कि शदीद गर्मी से फ़ज़ा में पैदा हो जाने वाली सम्मीयत और बिजलीयों की चमक से पैदा होने वाले नैटरोजन को पानी ज़मीन के अंदर पहुचा देता है तो ज़मीन की ताक़तों में एक क़िस्म का उबाल आ जाता है और इस तरह नबात को ताक़त मिलने का बेहतरीन ज़रीया निकल आता है। इसी लिये आपने देखा होगा कि जो असर बारिश से पहले पानी में होता है वह बाद के सैलाब में भी नही होता इसलिये कि पहला पानी अपने साथ फ़ज़ा के तमाम असरात को लेकर आता है और बाद के पानी को इस क़दर असरात मयस्सर नही होते।
4- ईल्मुल हैवान: “أَفَلَا يَنظُرُونَ إِلَى الْإِبِلِ كَيْفَ خُلِقَتْ” (ग़ाशिया 18)
(आख़िर यह लोग ऊँट को क्यों नही देखते कि उसे कैसे पैदा किया गया है?)
“إِنَّ اللَّهَ لاَ يَسْتَحْيِي أَن يَضْرِبَ مَثَلاً مَّا بَعُوضَةً فَمَا فَوْقَهَا.”(बक़रा 27
(अल्लाह को छोटी से छोटी से मिसाल के बयान करने में शर्म नही आती है चाहे वह मच्छर ही क्यों न हो।)
“فَبَعَثَ اللّهُ غُرَابًا يَبْحَثُ فِي الأَرْضِ”(मायदा 32)
(अल्लाह ने कौवे को भेजा ताकि ज़मीन को खोद कर क़ाबील को दफ़्न का तरीक़ा सिख़ाये।)
“يَا أَيُّهَا النَّمْلُ ادْخُلُوا مَسَاكِنَكُمْ لَا يَحْطِمَنَّكُمْ سُلَيْمَانُ وَجُنُودُهُ”(नमल 19)
(ऐ चीटींयों अपने अपने सूराख़ में चली जाओ कहीं सुलेंमान का लश्कर तुम्हे पामाल न कर दे।)
“وَأَوْحَى رَبُّكَ إِلَى النَّحْلِ أَنِ اتَّخِذِي مِنَ الْجِبَالِ بُيُوتًا”(नहल 69)
(अल्लाह ने शहद की मक्खी को तालीम दी कि वह पहाड़ों में घर बनाये।)
“أَلَمْ تَرَ كَيْفَ فَعَلَ رَبُّكَ بِأَصْحَابِ الْفِيلِ”(फ़ील 2)
(क्या तुमने असहाबे फ़ील की हालत नही देखी कि उनके हाथी भूँसा होकर रह गये।)
“وَأَرْسَلَ عَلَيْهِمْ طَيْرًا أَبَابِيلَ”(फ़ील 4)
(अल्लाह ने उड़ते हुए अबाबील को भेज दिया कि हाथीयों को तबाह कर दें।
“وَإِنَّ أَوْهَنَ الْبُيُوتِ لَبَيْتُ الْعَنكَبُوتِ”(अनकबूत 42 )
(सबसे कमज़ोर घर मकड़ी का घर होता है।)
मज़कूरा बाला आयात में मुख़्तलिफ़ मवाक़े पर यह बताया गया है कि उँट की ख़िलक़त में एक ख़ुसूसीयत पायी जाती है जो दूसरे हैवानों में नही है। मच्छर में एक ख़ुसूसीयत है जो हाथी में नही है। कव्वा चीज़ों को छुपाने के फ़न में माहिर होता है इसी लिये किसी ने कव्वे को अपनी मादा से छोड़ा खाते नही देखा है। चूँटी सियासत के फ़न से वाक़िफ़ होती है और वह कमज़ोरी के मवाक़े पर महाज़ छोड़ देने ही को मुनासिब समझती है। शहद की मक्खी पहाड़ों में रह कर अपने काम को बेहतर अंजाम दे सकती है। हाथी में कोई ऐसा जुज़ भी होता है जो एक कंकरी से उसे हलाक कर सकता है। अबाबील में संगबारी की बेहतर सलाहीयत होती है। मकड़ी जाहिरी हुस्न के ऐतबार से बेहतरीन घर बनाती है लेकिन उसका बातिन बहुत कमज़ोंर होता है।
क़ुरआने मजीद ने इन आयतों में आलमे बशरीयत को तंबीह की थी कि जानवर को हक़ीर न समझे उसकी क़ुव्व्ते बर्दाश्त इंसान से ज़्यादा होती है। छोटे अफ़राद को ज़लील न समझो इसलिये कि मच्छर की ताक़त हाथी से ज़्यादा होती है। अपनी सियासत और अपने मुक़ाबले पर नाज़ न करो कि तुम से बेहतर सियासत जानवर जानते हैं, अपनी सनअत पर नाज़ा न हो कि शहद की मक्खी जो शहद बना लेती है वह तुम नही बना सकते हो, अपने जुस्से पर नाज़ न करो कि हाथी अबाबील से हलाक हो सकता है। अपने दुशमन को कमज़ोंर न समझो कि अबाबील हाथीयों के लश्कर को तबाह कर सकते हैं। लेकिन इसी के साथ साथ ईल्मुल हैवान के अज़ीम नुक्तों से भी आगाह कर दिया और दरहक़ीक़त यही क़ुरआन का ऐजाज़े बयान है कि वह एक बात कहते कहते ज़िमनन दूसरे अहम नुक्ते की तरफ़ इशारा कर देता है और मुख़ातब का ज़हन उधर मुतवज्जेह भी नही होने पाता, फिर जब बाद के ज़माने में वह इस बात पर ग़ौर करता है तो उसकी अजमतों के सामने सजदा रेज़ हो जाता है।
5- तारीख़े तबीयी: “وَمَا مِن دَآبَّةٍ فِي الأَرْضِ وَلاَ طَائِرٍ يَطِيرُ بِجَنَاحَيْهِ إِلاَّ أُمَمٌ أَمْثَالُكُم”(अनआम 39)
(ज़मीन का कोई चलने वाला या उड़ने वाला ऐसा नही है जिसमें तुम जैसी क़ौमीयत और इजतेंमाईयत न पायी जाती हो।)
दुनिया ए फ़लसफ़ा हैवानात में इजतेमाई शुऊर की क़ाएल हो न हो, वह अक़्ल व इदराक को इंसान से मख़्सूस कहे या आम लेकिन क़ुरआने मजीद खुले अलफ़ाज़ में ऐलान करता है कि इजतेमाई शुऊर सिर्फ़ इंसान हिस्सा नही है बल्कि उसमें जुमला हैवानात और परिन्द शामिल हैं। सबके मुशतरक मसाईल हैं। और सबकी एक इजतेमाई सियासत है जिसके तहत इन मसाईल को हल किया जाता है। आप सुबह व शाम देखा करते हैं कि अगर मुहल्ले के एक कुत्ते पर हमला कर दिया जाये तो सारे कुत्ते बयक आवाज़ जवाब देते हैं। एक जानवर मर जाये तो सारे जानवर उसके ग़म में नौहा व ज़ारी करते हैं। एक भीड़ आगे चलती है तो सारी भीड़े उसके पीछे चलती हैं। एक चूँटी किसी मीठास की तरफ़ जाती है तो एक क़तार लग जाती है, एक परिन्दा आशयाना बनाता है तो सारे परिन्द उसी मर्कज़ का तरफ़ सिमट आते हैं। और इस तरह के बेशूमार वाक़यात मुशाहेदे में आते रहते हैं। ख़ुद क़ुरआने करीम ने चीटीयों की इजतेमाई देफ़ाई सियासत का तज़किरा किया है और अमीरूल मोमीनीन अली इब्ने अबीतालिब(अ) ने उसके ज़राअती शुऊर की तरफ़ इशारा फ़रमाया है।
6- कीमियागरी: “وَإِنَّ لَكُمْ فِي الأَنْعَامِ لَعِبْرَةً”(नहल 67)
(तुम्हारे लिये जानवरों में इबरत के सामान मुहय्या हैं।)
हिरन के नाफ़े में मुश्क, कीड़े के मुँह में रेशम, मक्खी के जिस्म में मुख़्तलिफ़ फूँलों के रस से शहद का तैयार हो जाना इस बात का सुबूत है कि हैवानात में कीमीयागरी का शुऊर इंसान से ज़्यादा होता है और इन बातों में इंसान के लिये इबरत का सामान मुहय्या है।
7- ज़राअत: “كَمَثَلِ جَنَّةٍ بِرَبْوَةٍ أَصَابَهَا وَابِلٌ فَآتَتْ أُكُلَهَا ضِعْفَيْنِ”(बक़रा 266)
(उसकी मिसाल उस बुलंदी पर वाक़ेअ बाग़ की तरह है जिस पर तेज़ बारिश हो जाये और उसकी पैदावार दुगनी हो जाये।)
आयत से साफ़ जाहिर होता है कि बुलंदी के बाग़ को मुनासिब पानी मिल जाए तो पैदावार के ज़्यादा होने के इमकानात क़वी हैं। और अजब नही कि उसका राज़ यह हो कि पस्त ज़मीनों तक बारिश का पानी पहुचते पहुचते अपनी असली सलाहीयत खो बैठता है और उसमें ज़मीनों के असरात शामिल हो जाते हैं लेकिन बुलंद ज़मीनों को यह असरात बराहे रास्त मिलते हैं इसलिये पैदावार के इमकानात ज़्यादा रहते हैं।
“قَالَ تَزْرَعُونَ سَبْعَ سِنِينَ دَأَبًا فَمَا حَصَدتُّمْ فَذَرُوهُ فِي سُنبُلِهِ”(युसुफ़ 38)
जनाबे युसुफ़ ने ताबीरे ख़्वाब बयान करते हुए फ़रमाया कि सात बरस तक मुसलसल जराअत करो और जो कुछ पैदावार हो उसका ज़्यादा हिस्सा बालीयों समेत महफूज़ कर लो इसलिये कि उसके बाद सात साल बहुत सख़्त आने वाले है।
इस वाक़ेआ ने साहिबाने ज़राअत को इस अम्र की तरफ़ मुतवज्जेह किया कि ग़ल्ला बालीयों से अलग करके रखा जाये तो उसके ख़राब होने के इमकानात ज़्यादा होते हैं और बालीयों समेत रखा जाये तो उसकी ज़िन्दगी बढ़ जाती है। जाहिर है कि यह इल्मे ज़राअत का अहम तरीन नुक्ता है जिससे हर दौर में फ़ायदा उठाया जा सकता है।
8- ईल्मे वेलादत: “يَخْلُقُكُمْ فِي بُطُونِ أُمَّهَاتِكُمْ خَلْقًا مِن بَعْدِ خَلْقٍ فِي ظُلُمَاتٍ ثَلَاثٍ”(ज़ोमर 7)
(अल्लाह तुमको शिकमे मादर में मुसलसल बनाता रहता है और यह काम तीन तारीकीयों में अंजाम पाता है।)
दौरे हाज़िर की तहक़ीक़ात ने वाज़ेह कर दिया है कि इंसानी तख़लीक़ का सिलसिला नुतफ़े से लेकर बशरीयत तक बराबर जारी रहता है और यह काम तीन पर्दों मिनबारी, ख़ूरबून, लफ़ाएफ़ी के अंदर होता है जिसकी वजह से नर और मादा का इम्तेयाज़ मुश्किल हो जाता है।
9- सेहते ग़ज़ाई: “وكُلُواْ وَاشْرَبُواْ وَلاَ تُسْرِفُواْ”(आराफ़ 32)
(खाओ, पीयो और इसराफ़ न करो।)
इन फ़िक़रात से साफ़ ज़ाहिर होता है कि इंसान के अमराज़ का ज़्यादा हिस्सा उसके इसराफ़ से तअल्लुक रखता है। इसराफ़ का मतलब माल को बेकार भेंक देना नही है बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा खा लेना भी इसराफ़ की हद में दाख़िल है और इसी लिये इसका ज़िक्र सिर्फ़ माल के बजाए खाने पाने के साथ हुआ है यानी खाने में बेजा ज़्यादती न करो कि मुजिबे हलाकत है।
10- हिफ़ज़ाने सेहत: “حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالْدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيرِ”(मायदा 4)
(तुम्हारे ऊपर मुरदार, ख़ून और सूवर के गोश्त को हराम कर दिया गया है। इसलिये कि इन चीज़ों के इस्तेमाल से तुम्हारी सेहत पर ग़लत असर पड़ता है।)
मुरदार का खाना बेहिसी पैदा करता है, ख़ून का पीना संगदिली का बाइस होता है और सूवर का गोश्त बेहयाई ईजाद करता है। अलावा इसके कि इन चीज़ों के जिस्म पर तिब्बी असरात भी होते हैं जिनका अंदाज़ा आज के दौर में दुश्वार नही है। हैरत की बात तो यह है कि मरीज़ को ख़ून देते वक़्त हज़ारों क़िस्म की तहक़ीक़ की जाती है और जानवरों का ख़ून पीते वक़्त इंसान इन तमाम बातों को नज़र अंदाज़ कर देता है।
11- विरासत: “يَا أُخْتَ هَارُونَ مَا كَانَ أَبُوكِ امْرَأَ سَوْءٍ وَمَا كَانَتْ أُمُّكِ بَغِيًّا”(मरियम 29)
(ऐ हारून की बहन मरियम न तुम्हारा बाप कोई बदकिरदार मर्द था और न तुम्हारी माँ बदकिरदार थी आख़िर यह तुम्हारे यहाँ बच्चा कैसे पैदा हो गया?।)
क़ुरआने मजीद ने मुख़ालेफ़ीन के इस फ़िक़रे की हिकायत करके इस नुक्ते की वज़ाहत कर दी कि इंसानी किरदार पर माँ बाप का असर पड़ता है और सीरत की तशकील में विरासत का बहरहाल एक हिस्सा होता है इसी लिये जनाबे मरियम ने भी क़ानून की तरदीद नही की बल्कि यह जाहिर कर दिया कि न मेरा बाप ख़राब था न मेरी माँ बुरी थी और न मैने कोई ग़लत एक़दाम किया है बल्कि यह सब क़ुदरत के करिश्मे हैं जिसका सुबूत ख़ुद यह बच्चा है तुम इससे सवाल कर लो सब ख़ुद ही मालूम हो जायेगा।
12- मा वराऊत तबीयत: “اللَّهُ يَتَوَفَّى الْأَنفُسَ حِينَ مَوْتِهَا وَالَّتِي لَمْ تَمُتْ فِي مَنَامِهَا”(जोमर 43)
(अल्लाह ही वक्ते मौत रूह को ले लेता है और जिसकी मौत का वक़्त नही होता है उसे ख़्वाब के बाद बेदार कर देता है।)
आयत आलमे तबीयत के अलावा एक आलमे नफ़्स व रूह की तरफ़ भी इशारा करती है, जिसका फ़ायदा यह है कि नफ़्स आलमे ख़्वाब में जिस्म को छोड़ कर अपने आलम की सैर करता है और अगर उसकी मौत का वक्त आ जाता है तो वह अपने आलम में रह जाता है और अगर हयात बाक़ी रहती है तो फिर जिस्म से पहले जैसा रिश्ता जोड़ लेता है।
13- कहराबाई ताक़त: “وَإِذَا الْبِحَارُ سُجِّرَتْ”(तकवीर 7)
(वह वक़्त भी आयेगा जब समन्दर भड़क उठेंगें।)
आग के साथ पानी और पानी के साथ आग का तसव्वुर आज की दुनिया में भी नामुमकिन ख़्याल किया जाता है चे जायके चौदह सदी क़ब्ल अरब की जाहिल दुनिया। लेकिन क़ुरआने मजीद ने समन्दर के साथ भड़कने का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके ईल्मी दुनिया के ज़हनों को उन कहरबाई और बरक़ी ताक़तों की तरफ़ मोड़ दिया जो आज भी पानी के दिल के अंदर मौजूद हैं। फ़र्क़ यह है कि आज उन ताक़तों से इस्तेफ़ादा करने के लिये आलात व असबाब की ज़रूरत होती है और कल क़यामत का दिन वह होगा यह ताक़तें और अज़ ख़ुद सामने आ जायेगीं और सारे समन्दर भड़क उठेंगें, وَأَخْرَجَتِ الْأَرْضُ أَثْقَالَهَا (ज़लज़ला 3) ज़मीन सारे ख़ज़ाने उगल देगी तो पानी भी अपनी सारी ताक़तों को सरे आम लो आयेगा।
14- ख़ला: “يَا مَعْشَرَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ إِنِ اسْتَطَعْتُمْ أَن تَنفُذُوا مِنْ أَقْطَارِ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ فَانفُذُوا لَا تَنفُذُونَ إِلَّا بِسُلْطَانٍ.”(रहमान 34)
(ऐ गिराहे जिन्न व इन्स, अगर तुममें अतराफ़े ज़मीन व आसमान से निकल जाने की ताक़त है तो निकल जाओ लेकिन यादँ रखो कि तम बग़ैर ग़ैर मामूली ताक़त के नही निकल सकते।)
आयत ने अक़तारे समावात व अर्ज़ की वुसअतों का ज़िक्र करने के बावजूद ख़ला तक पहुचने के इमकान पर रौशनी डाली है और ज़ाहिर है कि जब ग़ैर मामूली ताक़त के सहारे फ़जाए बसीत की वुसअतों को पार करके ख़ला ए बसीत तक रसाई मुमकिन है तो चाँद सूरज तक पहुचने में क्या दुश्वारी है? अगरते बाज़ सादा लौह अवाम ने इस आयत से चाँद तक जाने की मुहालीयत पर इस्तिललाल किया है लेकिन उन्हे यह सोचना चाहिये कि चाँद और सूरज वग़ैरह समावात व अर्ज़ की वुसअतों में शामिल हैं और क़ुरआने मजीद ने जिस शय को तक़रीबन नामुमकिन बताया है वह उन वुसअतों के बाहर निकल जाना है न कि उन वुसअतों में सैर करना। वर्ना अगर ऐसा होता तो कम अज़ कम जिन्नात को मुख़ातब न किया जाता जो उस फ़ज़ा में हमेशा ही परवाज़ किया करते है।
15- ईल्मुल अफ़लाक: “ثُمَّ اسْتَوَى إِلَى السَّمَاءِ وَهِيَ دُخَانٌ”(फ़ुस्सेलत 12)
ख़ालिक़ ने आसमान की तरफ़ तवज्जो की जो उस वक़्त धुँवा था।
आयत से साफ़ ज़ाहिर होता है कि आग़ाज़े ख़िलक़ते अफ़लाक धुँवे से हुआ है।
“وَجَعَلَ الْقَمَرَ فِيهِنَّ نُورًا وَجَعَلَ الشَّمْسَ سِرَاجًا”(नूह 17)
(क्या तुमने नही देखा कि अल्लाह ने किस तरह हफ़्त तबक़ आसमान पैदा कर दिये और उनमें चाँद को रौशनी और सूरज को चिराग़ बना दिया।) यह इशारा है इस बात की तरफ़ की सूरज का नूर ज़ाती है और चाँद का नूर उससे कस्ब किया हुआ है।
“اللّهُ الَّذِي رَفَعَ السَّمَاوَاتِ بِغَيْرِ عَمَدٍ تَرَوْنَهَا”(रअद 3)
(ख़ुदा वह है जिसने आसमानों को बुलंद कर दिया बग़ैर किसी ऐसे सुतून के जिसे तुम देख सको।)
मालूम होता है कि रफ़अते समावात मे कोई ग़ैर मरई सुतून काम कर रहा है जिसे आज की ज़बान में क़ुव्व्ते जज़्ब व दफ़्अ से ताबीर किया जा सकता है।
وَمَن يُرِدْ أَن يُضِلَّهُ يَجْعَلْ صَدْرَهُ ضَيِّقًا حَرَجًا كَأَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِي السَّمَاء(अनआम 126)
(ख़ुदा जिसको उसकी गुमराही में छोड़ देता है उसके सीने को इतना तंग बना देता है जैसे वह आसमान में बुलंद हो रहा हो।)
आयत से साफ़ ज़ाहिर होता है कि आसमान की बुलंदी तंगी ए नफ़स का बाइस है इसलिये कि फ़ज़ाओं में हवा की मिक़दार ज़मीन से कहीं ज़्यादा कम है।
“وَمِنْ آيَاتِهِ خَلْقُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَمَا بَثَّ فِيهِمَا مِن دَابَّةٍ وَهُوَ عَلَى جَمْعِهِمْ إِذَا يَشَاءُ قَدِيرٌ”
(अल्लाह की निशानीयों में से एक यह भी है कि उसने आसमान व ज़मीन और दोनो में मख़लूक़ात पैदा किये हैं और वह जब चाहे दोनो को जमा भी कर सकता है।)
मालूम यह होता है कि बाज़ आसमानों में बाज़ मख़लूक़ात का वुजूद है जो किसी वक़्त यहाँ की मख़लूक़ात के साथ जमा भी हो सकती है ख़्वाह क़यामत ही के दिन क्यों न हो।
“وَالشَّمْسُ تَجْرِي لِمُسْتَقَرٍّ لَّهَا”(यासीन 39)
(आफ़ताब अपने मुसतक़र के लिये दौड़ रहा है।)
यानी आफ़ताब का कोई आख़री मर्कज़ है जिसकी तलाश में मुसलसल सरगर्मे सफ़र है और उसकी सैर सिर्फ़ दौरी नही है बल्कि वह तेज़ी के साथ आगे की तरफ़ भी बढ़ रहा है अब ख़ुदा ही जाने कि इस फ़ज़ाए बेकराँ में उसका आख़री मुसतक़र और मर्कज़ क्या होगा?।
16- तबक़ातुल अर्ज़: “جَعَلَ لَكُمُ الْأَرْضَ ذَلُولًا فَامْشُوا فِي مَنَاكِبِهَا”(मुल्क 16)
(अल्लाह ने तुम्हारे लिये ज़मीन को सुबुक रौ नाक़ा बना दिया है अब उसके काँधों पर सफ़र करो।)
मालूम होता है कि ज़मीन में हल्की हल्की हरकत पायी जाती है और उसकी शक्ल गोल है वर्ना सफ़र काँधे के बजाए सीने या पुश्त पर होता।
“هُوَ الَّذِي خَلَقَ لَكُم مَّا فِي الأَرْضِ جَمِيعاً”(बक़रा 30)
(वह ख़ुदा वह है जिसने ज़मीन के अंदर की तमाम चीज़े तुम्हारे लिये पैदा की हैं।)
आयत से साफ़ ज़ाहिर है कि मख़लूक़ाते अर्ज़ी सिर्फ़ सतहे अर्ज़ से मुताल्लिक़ नही हैं बल्कि दूसरे तबक़ातुल अर्ज़ में भी मख़लूक़ात का वुजूद है और वह सब इंसानी फ़ायदे के लिये ख़ल्क़ हुई हैं चाहे उनकी शक्ल इंसानी हो या मादनीयाती।
“فَجَعَلَهُ غُثَاءً أَحْوَى.”(आला 5-6)
(उसी ख़ुदा ने चरागाहों को निकाला और फिर ख़ुश्क करके सियाह बना दिया।)
ख़ुश्की और सियाही की ख़ुसूसीयत का तज़किरा इस अम्र का शाहिद है कि यह अल्लाह का अलग से कोई दूसरा अहसान है जिसका तअल्लुक घाँस की पैदावार से नही है इसलिये अजब नही कि इससे दौरे हाज़िर की इस तहक़ीक़ ही की तरफ़ इशारा हो कि जिन ज़मीनों में पेटरोल वग़ैरह बरामद होता है वहाँ की घाँस ख़ुश्क और सियाह हो जाती है। अब ख़ुदा ही जाने कि उसने ग़ैर ज़ी ज़रअ वादीयों को किन ख़ज़ानों से सरफ़राज़ कर दिया है और इंसाना फ़ायदे के लिये क्या क्या चीज़ें ख़ल्क़ कर दी हैं।
“وَالأَرْضَ مَدَدْنَاهَا وَأَلْقَيْنَا فِيهَا رَوَاسِيَ وَأَنبَتْنَا فِيهَا مِن كُلِّ شَيْءٍ مَّوْزُونٍ ”
(हमने ज़मीन को फ़ैलाया है और उसमें पहाड़ों को डाल कर उससे वह चीज़ें उगाई है जिनका वज़्न मुअय्यन है। आयत का इशारा इस अम्र की तरफ़ है कि नबातात के जुमला अनासिर और मवाद एक ख़ास वज़्न रखते हैं। ग़ैर मौज़ूँ कोई शय नही है।)
“وَمِن كُلِّ شَيْءٍ خَلَقْنَا زَوْجَيْنِ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ”
(हमने हर शय का जोड़ा उसी के अंदर से पैदा किया है।)
मालूम होता है कि आलमे वुजूद में वहदत और इकाई सिर्फ़ ख़ालिक़ व मालिक का हिस्सा है बाक़ी हर शय में दुई और ज़ौजीयत पायी जाती है चाहे वह दूई ज़ाहिरी ऐतबार से नर और मादा की हो या हक़ीक़ी ऐतबार से कहरबाई मौजों की?
याद रहे कि आयाते बाला के पेश करने से यह मतलब हरगिज़ नही है कि दौरे हाज़िर ने अपनी तहक़ीक़ी मंज़िल को जिस हद तक पहुचाया है आयत उसी हद की तरफ़ इशारा कर रही है बल्कि मक़सद सिर्फ़ यह है कि उन आयात में ईल्मे कायनात की तरफ़ खुले हुए इशारे पाये जाते हैं चाहे ईल्म वही हो जिसे आज की दुनिया में पेश किया जा रहा है या उससे बालातर कोई मंज़िल हो जहाँ तक आज का ईल्म नही पहुच सका है। इसी लिये मैने आयात की तशरीह मे सिर्फ़ इशारे का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है और उसे तहक़ीक़ व तअयीन पर महमूल नही किया है।
ऊलूमे क़ुरआन के तज़किरे का एक मक़सद यह भी है कि यह ऊलूम अगर बक़ाए नौअ और इतक़ाए बशर के लिये ज़रूरी न हों तो कम अज़ कम निगाहे क़ुरआन में जाएज़ ज़रूर हैं वर्ना क़ुरआने मजीद उन हक़ाएक़ व मआरिफ़ की तरफ़ इशारा करके इंसानी ज़हन को तहक़ीक़ पर आमादा न करता लेकिन उसे क्या किया जाये कि सदरे अव्वल के बाज़ मुसलमानों ने इस नुक्ते से ग़फ़लत बरती और इसकन्दरया का अज़ीम कुतुबखाना जिससे ऊलूमें क़ुरआनी की तशरीह व तफ़सील का काम लिया जा सकता था नज़रे आतिश कर दिया गया और इस तरह उम्म्ते इस्लामीया दीगर अक़वाम से हमेशा हमेशा के लिये पीछे हो गयी, इसकन्दरया के कुतबखाने का नज़रे आतिश होना इतना बड़ा हौलनाक काम नही था जितना बड़ा हौलनाक अम्र उसकी पुश्त पर काम करने वाला नज़रिया था। कहा यह गया कि इन किताबों में अगर वही सब कुछ है जो क़ुरआने मजीद में है तो हमे क़ुरआन को होते हुए इन किताबों की ज़रूरत नही है और अगर इनमें क़ुरआने करीम के अलावा कोई शय है तो उम्मते क़ुरआन को ऐसी किताबें नज़रे आतिश ही कर देनी चाहियें जो क़ुरआन से हटकर मतालिब बयान करती हों। यह ऐसा ख़तरनाक और ज़हरीला नज़रिया था जिसने हर मोड़ पर बशरीयत को गुमराह करने का फ़रीज़ा अंजाम दिया है। ब्राहमनों ने रिसालत के इंकार में यही तर्ज़े इस्तिदलाल ऐख़्तियार किया कि अगर रसूल वही कुछ कहता है जो अक़्ल का फ़ैसला है तो अक़्ल के होते हुए रसूल की क्या ज़रूरत है और अगर रसूल अक़्ल के ख़िलाफ़ बोलता है तो ख़िलाफ़े अक़्ल बात को तसलीम करना इंसानीयत और बशरीयत के मनाफ़ी है। यहूदीयों और ईसाईयों का इस्तिदलाल भी यही था कि अगर शरीयते मूसा व ईसा बर हक़ है तो उसके मन्सूख़ होने के क्या मायनी हैं? और अगर ग़लत है तो ख़ुदा ने ऐसी शरीयत अपने अंबीया को क्यो दी? ग़रज़ बशरीयत के हर मोड़ पर तबाही का राज़ इसी ग़फ़लत में पोशीदा नज़र आता है और मेरा ख़्याल तो यह है कि मुसलमानों का यह अंदाज़े फ़िक्र भी अपने ज़हन की पैदावार नही था बल्कि उन्ही अक़वाम से लिये हुए सबक़ का नतीजा था जिन्होने हर दौर में बशरीयत को गुमराह किया है। और इस गुमराही का राज़ सिर्फ़ यह है कि हर क़ौम ने अस्ल मतलब को याद रखा और तफ़सीलात को फ़रामोश कर दिया वर्ना ब्राहमणों को यह सोचना चाहिये था कि नबी का काम अक़्ल की मुख़ालेफ़त नही होता है बल्कि अक़्ल के अहकाम की तफ़सील हुआ करता है। अक़्ल मालिक की इताअत का हुक्म देती है और नबी तरीक़ा ए इताअत की तालीम देता है, अक़्ल बुराईयों से अलग रहने का फ़ैसला करती है और नबी बुराईयों की तफ़सील बयान करता है। इसी तरह यहूदीयत व मसीहीयत के परस्तारों को यह सोचना चाहिये था कि किसी क़ानून का बरहक़ होना उसके अबदी होने की दलील नही है बल्कि कभी कभी क़ानून एक महदूद बक़्फ़े के लिये बनाया जाता है और उस बक़्फ़े में इन्तेहाई सालेह और सेहतमंद होता है लेकिन उस बक़्फ़े के गुज़र जाने के बाद वह बेकार और ग़ैर सेहतमंद हो जाया करता है ऐसे क़ानून के बारे में यह नही कहा जा सकता है कि चुँकि एक बक़्फ़े के लिये सेहतमंद था लेकिन हर दौर में कारगर और कारआमद होना चाहिये।
मुसलमानों के इस जाहिलाना तर्ज़े फ़िक्र की ख़राबी की तरफ़ एक मुहक़्क़िक़ ने बड़े अच्छे अंदाज़ से इशारा किया है। वह कहता है कि अगर सदरे अव्वल के उन मुसलमानों को ऊलूमे व मआरिफ़ से कोई भी राब्ता होता तो वह यह सोचते कि अगर इन किताबों में क़ुरआन के मुवाफ़िक़ बयानात हैं तो उन्हे दूसरी क़ौमों के सामने बतौर इस्तिदलाल पेश किया जा सकता था और अगर क़ुरआन के मुख़ालिफ़ नज़रियात हैं तो क़ुरआन की रौशनी में उनकी तरदीद करके दीगर अक़वाम पर क़ुरआन की बरतरी साबित की जा सकती है। लेकिन अफ़सोस कि उस दौर के मुसलमानों में न इस्बात की ताक़त थी और न तरदीद की। नतीजा यह हुआ कि हुक्मरानों ने अपनी जिहालत का पर्दा रखने के लिये एक अज़ीम ईल्मी सरमाये को नज़रे आतिश कर दिया और बशरीयत मंज़िले मेराज से सदीयों पीछे हट गयी।
याद रखने की बात है कि मुसलमानों के इस तर्ज़े अमल के पीछे कोई मज़हबी जज़्बा कार फ़रमा नही था बल्कि यह दर हक़ीक़त इक़्तेदार व आमेरीयत के मुज़ाहेरे का जज़्बा था जो इस शक़्ल में सामने आ रहा था। क़ुरआन की मुवाफ़ेक़त और मुख़ालेफ़त तो सिर्फ़ बाद की तावीली पैदावार है जिसका अहम सुबूत इमाम मुहम्मद इब्ने इस्माईल बुख़ारी और इमाम मुस्लिम की वह रिवायात हैं जिन्हे इन हज़रात ने किताबते हदीस के ज़ैल में दर्ज किया है और जिनसे अंदाज़ा होता है कि सदरे अव्वल के मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा रसूले अकरम की हदीसों के लिखने और जमा करने का मुख़ालिफ़ था। सोचने की बात है कि जो मुसलमान अपने रसूल के अक़वाल के जमा करने को बिदअत समझता हो वह इसकन्दरया के कुतिबख़ाने के साथ क्या बर्ताव करेगा। बात यहीं तक महदूद नही रहती बल्कि एक मंज़िल आगे बढ़ जाती है और साहिबें नज़र इंसान को यह सोचना पड़ता है कि इसकन्दरया की किताबों में तो ख़ैर मुख़ालेफ़ते क़ुरआन का इमकान था इसलिये उन्हे नज़रे आतिश कर दिया गया। रसूले अकरम(स) की हदीसों में कौन सी ख़ास बात थी जिसकी वजह से उसकी किताबत हराम थी क्या यहाँ भी मुख़ालेफ़ते क़ुरआन के इमकानात थे? या क़ुरआनी इजमाल को हदीस के तफसीलात की ज़रूरत न थी? यह कोई और जज़्बा काम कर रहा था जिसके इज़हार के सामने तारीख़ के मुँह में लगाम लगी हुई थी और मुवर्रिखञ की नातेक़ा गुँग है, बात सिर्फ़ यही है कि मुसलमान अपनी जिहालत की पर्दापोशी के लिये एक पुरी उम्मत को ऊलूमे दीन व दुनिया से महरूम कर रहे थे और इस रौशनी में कहना पड़ेगा कि आज का मुसलमान जिस अहसासे कमतरी का शिकार है और आज की उम्मत इस्लामीया ईल्मी मैदान में जिस क़दर पीछे हो गयी है उसकी ज़िम्मेदारी दौरे हाज़िर से ज़्यादा सदरे अव्वल के उन मुसलमानों पर है जिन्होने मुमानेअते ईल्म व फ़न और पाबंदी ए फ़िक्र व नज़र की बिदअत का संगे बुनियाद रखा था।